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________________ ( ७४७ ) है, वर्तमानके जीव क्षुद्रबुद्धि हैं. इसलिये ऐसा कुछ तो भी सीखना चाहिये कि जो थोडा हो, और इष्टकार्य साध सके उतना हो. इसलोकमें उत्पन्न हुए मनुष्यने दो बातें अवश्य सीखना चाहिये. एक तो वह कि, जिससे अपना निर्वाह होय, और दूसरी वह कि, जिससे मरनेके अनन्तर सद्गति प्राप्त हो. निंद्य और पापमय कार्य से निर्वाह करना अनुचित है. मूलगाथामें 'उचित' पद है, इसलिये निंद्य तथा पापमय व्यापारका निषेध हुआ ऐसा समझना चाहिये. तृतीय द्वार पाणिग्रहण याने विवाह, यह भी त्रिवर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ और कामकी सिद्धिका कारण है, इसलिये योग्यरीति से करना चाहिये. विवाह अपने से पृथक्गोत्र में उत्पन्न तथा कुल, सदाचार, शील, रूप, वय, विद्या, संपत्ति, वेष, भाषा, प्रतिष्ठाआदिसे अपनी समानता के हों उन्हींके साथ करना चाहिये. शीलआदि समान न हों तो, परस्पर अवहेलना, कुटुम्बमें कलह, कलंक इत्यादिक होते हैं. जैसेकि पोतनपुरनगर में श्रीमतीनामक एक श्रावककन्याने सादर किसी अन्यधर्मावलंबी पुरुषके साथ विवाह किया था. वह धर्म में बहुत ही दृढ थी. परन्तु उसके पतिका परधर्मी होने से उसपर अनुराग नहीं रहा. एक समय पतिने घरके अंदर एकघडेमें सर्प रखकर श्रीमतीको कहा कि, अमुक घडेमें से पुष्पमाला निकाल ला. जब श्रीमती लेने गई तो नव
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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