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________________ (५९५) में फेंक दूं ! अथवा इसी प्रकार सोता हुआ उठाकर स्वयंभूरमणसमुद्र में डाल दू ? किंवा अजगरकी भांति इसे निगल जाऊं ? या यहां आकर सोये हुए मनुष्यको न मारूं ? शत्रु भी घर आवे तो उसका अतिथिसत्कार करनाही चाहिये. कहा है किसत्पुरुष अपने घर आये हुए शत्रुकी भी मेहमानी करते हैं । शुक्र गुरुका शत्रु है, और मीनराशि गुरुका स्वगृह कहलाती है, तो भी शुक्र जब मीनराशिमें आता है तब गुरु उसको उच्चस्थान देता हैं. अतएव यह पुरुष जागृत होवे वहां तक अपने भूतसमुदायको बुलाउं. पश्चात् जो उचित होगा, करूंगा." राक्षस यह विचारकर वहांसे चला गया व बहुतसे भूतोंको बुला लाया. तो भी कन्याका पिता जैसे कन्यादान करके निश्चित हो सो रहता है वैसे कुमार पूर्वहीकी भांति सोरहा था. यह देख राक्षसने तिरस्कारसे कहा- " अरे अमर्याद ! मूढ ! बेशरम ! निडर ! तू शीघ्रही मेरे महलमें से निकल जा, अन्यथा मेरे साथ युद्ध कर." राक्षसके इन तिरस्कारवचनोंसे तथा भूतोंके किलकिलशब्दसे कुमारकी निद्रा भंग होगई. उसने सुस्तीमें होते हुए ही कहा कि, "अरे राक्षसराज ! भोजन करते मनुष्यके भोजनमें अन्तराय करनेकी भांति, सुखसे सोये हुए मेरे समान विदेशीमनुष्यकी निद्रामें तूने क्यों भंग किया ? १ धर्मकी निंदा करनेवाला, २ पंक्तिका भेद करनेवाला, ३ अकारण निद्राभंग करनेवाला, ४ चलती हुई कथामें अन्तराय देख राक्षसत शीघ्रहा इन ति
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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