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________________ ( ५९४ ) दीखता है उसी प्रकार उस नगरी में सब जगह शून्यता थी; परन्तु विष्णु जहां जावे वहां लक्ष्मी उसके साथ रहती है, उस तरह वहां स्थान स्थान में लक्ष्मी विराज रही थी । बुद्धिशाली रत्नसारकुमार उस रत्नमयनगरीको देखता हुआ इन्द्रकी भांति राजमहल में गया । क्रमशः गजशाला, अश्वशाला, शस्त्रशाला आदिको पार कर वह चक्रवर्तीकी भांति चंद्रशाला (अंतिम मंजल ) में पहुंचा। वहां उसने इन्द्रकी शय्या - के समान अत्यन्त मनोहर एक रत्नजडित शय्या देखी । वह साहसी और अभय कुमार निद्रावश हो थकावट दूर करनेके लिये अपने घरकी भांति हर्ष पूर्वक उस शय्यापर सोगया । इतने में मनुष्य के पैरकी हालचाल सुन कर राक्षस क्रुद्ध हुआ, और वीर शिकारी जैसे सिंहके पीछे जाता है वैसे वह कुमारके पास आया । और उसे सुखपूर्वक सोता हुआ देखकर उसने मनमें विचार किया कि, जो बात अन्य कोई व्यक्ति मनमें भी नहीं ला सकता, वही बात इसने सहज कौतुकसे करली. ढिठाईके कार्य विचित्र ही प्रकार के होते हैं । इस शत्रुको अब किस मारसे मारूं ? फलकी भांति नखसे इसका मस्तक तोड डालूं ? अथवा गदा से इसका एकदम चूर्ण कर डालूं ? किंवा छुरीसे खरबूजेकी भांति इसके टुकड़े कर डालूं? अथवा जलते हुए नेत्रसे निकलती हुई अग्निसे जैसे कामदेवको शंकरने भस्म करडाला उसी प्रकार इसे जला डालूं ? अथवा गेंदकी भांति इसे आकाश
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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