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________________ ( १०८ ) ( चन्द्र तथा पृथ्वीका पालक ) जब नवीन उदयसे सुशोभित होता है तब रात्रि प्रफुल्लित हो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? यद्यपि चारों तरफ से घोर अंधकार फैल रहा था तथापि ज्ञानरूपी उद्योतके उज्वल होनेसे जिसके चित्त में लेश मात्र भी अन्धकार नहीं ऐसा मृगध्वज राजा मनमें विचार करने लगा कि, "कब प्रातःकाल होगा तथा मैं दीक्षा ग्रहण कर आनन्द " पाऊंगा ? अतिचार रहित सुन्दर चारित्रकी चर्या से मैं कब चलूंगा ? तथा सकलकमका क्षय कब करूंगा ? " इस भांति उत्कर्ष की अन्तिम सीमा पर पहुंचे हुए और शुभध्यान में तल्लीन राजा मृगध्वजने ऐसी शुभभावनाओं का ध्यान किया कि जिससे प्रातःकाल होते ही रात्रि के साथ साथ घनघाती कर्मोका भी अत्यन्त क्षय हो गया और उनके ( कर्म ) साथ कदाचित स्पर्धा होने ही से अनायास ही उसे केवलज्ञान भी उत्पन्न हो गया। सांसारिक कृत्य करनेके लिये चाहे कितना ही प्रयत्न किया जाय वह भी निष्फल होता है परन्तु आश्चर्य की बात है कि दीक्षाके समान धर्मकृत्यकी तो केवल शुभभावना करने ही से मृगध्वज राजाकी भांति केवलज्ञान उत्पन्न होता है । सर्वज्ञ तथा निर्ग्रन्थ मुनिराजों में शिरोमणि हुए उस मृगध्वज राजाको तुरन्त साधुवेष देनेवाले देवताओंने भारी उत्सव किया । उस समय चकित तथा आनन्दित होकर शुकराज इत्यादि लोग वहां आये, राजर्षिने भी अमृतके समान इस प्रकार उपदेश दिया:--
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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