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________________ (१०९) 'हे भव्य प्राणियों ! साधुधर्म तथा श्रावकधर्म ये दो संसाररूपी समुद्र में सेतूबंध ( पाल ) हैं । जिसमें पहिला सीधा किन्तु कठिन मार्ग है और दूसरा टेढा किन्तु सुखपूर्वक जाने योग्य मार्ग है. इसमें जिस मार्गसे जाने की इच्छा हो उस मार्ग से जाओ." यह उपदेश सुन कमलमाला, सद्धर्मरूप समुद्रमें हंसके समान हंसराज और चन्द्राङ्क इन तीनों व्यक्तियोंको प्रतिबोध हुआ और दीक्षा लेकर क्रमशः सिद्ध हो गये । शुकराज आदि सर्व लोगोंने साधुधर्म पर श्रद्धा रख करके शक्ति के अनुसार दृढ समकित पूर्वक बारहव्रत ग्रहण किये । राजर्षि मृगध्वज तथा चन्द्राङ्कने विरागी होनेसे असती चन्द्रवतीका कुकर्म कहीं भी प्रकट नहीं किया. दृढ वैराग्य होने पर परदोष प्रकट करने से प्रयोजन ही क्या है ? भवाभिनन्दी जीव ही केवल परनिन्दा करनेमें निपुण होते हैं । स्वयं अपनी स्तुति करना तथा परनिन्दा करना यह निर्गुणी मनुष्यका लक्षण है व अपनी निन्दा करना तथा परस्तुति करना ये गुणी मनुष्योंके लक्षण हैं, केवलज्ञानसे सूर्य समान राजर्षि मृगध्वज अपने चरणोंसे पृथ्वीको पवित्र करने लगे और इन्द्र समान पराक्रमी शुकराज राज्यकारभार चलाने लगा। महान् अन्यायी चन्द्रशेखर पुनः चन्द्रवती पर स्नेह तथा शुकराज पर द्वेष रखने लगा । अतिशय क्लेश होनेसे एकबार
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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