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________________ ( १०७ ) मुह बहुभवि अवर कारणि, मूरख दुखियो थाई ॥ ४ ॥ जा० एकने काजे बिन्हे खेचे, त्रण संचे चार वारे । पांचे पाली छए टाली, आप आप उतारे ||५|| जागिन० ||७८० || । योगिनी की यह बात सुनकर राजा मृगध्वजका चित्त शान्त और विरागी होगया । पश्चात् योगिनी की आज्ञा लेकर वह अपने पुत्र चन्द्राङ्कको साथ ले अपने नगर के उद्यानमें गया । चन्द्राङ्कको भेज कर शुकराज, हंसराज तथा मंत्री आदिको बुलवाया और संसारसे उद्विग्न तथा तत्त्वमें निमग्न होकर सर्व परिवारको कहा कि, “मैं अब तपस्या करूंगा, कारण कि दास तुल्य इस संसार से मेरा बहुत ही पराभव हुआ । अब शुकराजको राज्य दे देना, अब मैं घर नहीं आऊंगा" मंत्री आदिक बोले-" हे महाराज ! घर पधारिये । वहां चलने में क्या दोष है ? मनमें मोह न हो तो घर भी जंगल ही के समान है, और जो मोह होवे तो जंगल भी घरकी भांति ( कर्म बंधन करने वाला ) है. सारांश यह है कि, जीवको बन्धनमें डालनेवाला केवल मोह ही है " इस प्रकार आग्रह करनेसे राजा परिवार सहित घर आया । उसे देखते ही चन्द्रशेखरको यक्षका बचन याद आया और शीघ्र वह वहां से भाग कर अपने नगर को जा पहुंचा. राजा मृगध्वजने महोत्सव के साथ शुकराजको राज्याभिषेक किया और पुत्रके पास से " दीक्षा की सम्मति" यही मात्र मूल्य लिया । राज्याभिषेक उत्सव अनन्तर रात्रि हुई । युक्त ही है, राजा
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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