SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऐं नमः संशोधकीय वक्तव्य (महामहोपाध्यायजी श्री यशोविजयजी म. की एक प्रेरक गाथा) अम्हारिसा वि मुक्खा, पंतीए पंडिआणं पविसंति। अण्णं गुरुमत्तीए, किं विलसिअमब्भुअं इत्तो? ।। ९ ।। (गुरुतत्त्व विनिश्चय) हमारे जैसे मूर्ख भी गुरुभक्ति के प्रभाव से पंडितों की पंक्ति में प्रवेश करते हैं। गुरु भक्ति का इससे बढ़कर और क्या आश्चर्यकारी प्रभाव हो सकता है। यानी गुरु भक्ति द्वारा जो अन्य आश्चर्यकारी लाभ होते हैं उनमें यह लाभ सबसे श्रेष्ठ है। क्योंकि मूर्ख को पण्डित बनाना, पत्थर को नाच सिखाने जैसा दुष्कर कार्य है। उपाध्यायजी ने उपदेशरहस्य, यतिलक्षणसमुच्चय, गुरुतत्त्वविनिश्चय आदि में गुरु की महत्ता का जबरदस्त दिग्दर्शन किया है। उपदेशरहस्य एवं यतिलक्षणसमुच्चय की रचना कलिकाल सर्वज्ञ हरिभद्रसूरिजी के उपदेशपद (गाथा ६८० आदि) एवं पञ्चाशक (११ साधुधर्मपञ्चाशक) के आधार से की गई है। इसी प्रकार धर्मरत्नप्रकरण आदि में भी गुरु महत्ता पर विशेष प्रकाश डाला गया है । - उपर्युक्त गाथा में, उपाध्यायजी का अनुपम आत्मसमर्पणभाव स्पष्टरूप से दृष्टिगोचर होता है। जिनशासन के एक अप्रतिम विद्वान्.... न्यायविशारद.... न्यायाचार्य.... स्वयं को मूर्ख रूप से संबोधित करके वर्तमानयुग के विद्वानों को आत्मानुप्रेक्षा का अद्वितीय उदाहरण पेश कर रहे हैं। ज्ञान और विचार के इस अधिदेवता ने एक और अपने अगाध ज्ञान से शासन के पुरातन विद्वानों को प्रभावित किया, तो दूसरी और उदीयमान अङ्कुरों को भी ज्ञान के जल से सींचा है। उनमें से एक है...... के टीकाकार, जिनके विशिष्ट व्यक्तित्व का परिचय आगे दिया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ प्रस्तुत वक्तव्य में (१) ग्रन्थकार (२) ग्रन्थ (३) मोक्षरत्ना टीकाकार (४) टीका (५) टीका का नाम एवं (६) संशोधन के विषय में प्रकाश डालना चाहता हूँ । ( १. ग्रन्थकार ) भारतवर्षपुरातनकाल से अद्वितीय संस्कृति का क्रीडांगण रहा है। सभी संस्कृतिओं में निवृत्तिमार्ग की उपासिका श्रमणसंस्कृति का स्थान अग्रगण्य रहा है। प्राचीन काल में इसी संस्कृति के अग्रगण्य अनेक जैन मुनिवरों ने साहित्यसेवा में तल्लीन बन कर अपनी आत्मा के साथ-साथ समस्त जैन संघ एवं भारतवर्ष को कृतार्थ किया है। श्रमण भगवान महावीर स्वामी के ग्यारह गणधरों ने प्रभु की अमृतवाणी को अपनी प्रतिभा के द्वारा ग्रंथ कर बारह अंगसूत्रों का निर्माण किया। अनेक 'समकालीन श्रमणों ने एवं उनके पश्चात् वर्त्ती श्रमणों ने द्वादशांगी के आधार पर जो अन्य साहित्य का सृजन किया था वह संपूर्णरूप में आज प्राप्त नहीं है। जैनवाङ्मय को गीर्वाण गिरा में गूंथनेवालों में वाचकवर्य उमास्वाति म का अग्रस्थान है, जिन्हें श्वेताम्बर एवं दिगम्बर भी प्रमाणभूत मान रहे हैं। तत्पश्चात् जैन श्वेताम्बर गगन में सिद्धसेनदिवाकरसूरिजी खुद की अनेकविध प्रतिभा से सूर्यसमान सुशोभित हैं। वे कवि, वादी, तार्किक, दार्शनिक, स्तुतिकार एवं सर्वदर्शनसंग्रहकार के रूप में अद्वितीय स्थान को प्राप्त हैं ऐसे गौरवाशाली साहित्यकारों के साहित्य का आकंठ पान करके श्रीहरिभद्रसूरिजी पुष्ट हुए थे, जिन्हें नवाङ्गीटीकाकार श्री अभयदेवसूरिजी ने पञ्चाशक की टीका में 'भगवान' कह कर पुकारा है। बाद में जिनशासन के ताजस्वरूप श्रीहेमचंद्राचार्य हुए। श्री हरिभद्रसूरिजी एवं १. नंदीसूत्रचूर्णौ 'जतो ते चतुरासीतिं समणसहस्सा अरहंतमग्गउवदिट्ठे जं सुत्तमणुसरित्ता किंचि णिज्जूहेतो ते सव्वे पइण्णगा...' । २. चतुर्विंशति प्रबन्ध 'कलिकालसर्वज्ञ' इति बिरुदम् पृ. ५० । (iii)
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy