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________________ श्रीहेमचंद्रसूरिजी ये दोनों आचार्य कलिकालसर्वज्ञ बिरुदधारी दोनों 'कलिकालसर्वज्ञ' सूरिसम्राट् के बाद अग्रगण्य स्थान स्वोपज्ञटीका से अलंकृत प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्त्ता 'महामहोपाध्याय श्रीयशोविजयजी म. का है। उपाध्यायजी की विमल यश-रश्मियाँ विद्वद्मानस को चिरकाल से आलोकित कर रही हैं। उनके उन्नर एवं ज्योतिर्मय मस्तिष्क ने जो विचारक्रान्ति एवं ज्ञानसमुद्र पैदा किया था, उससे आज कौन अपरिचित है? हुए हैं । उपाध्यायजी का जन्म संवत् सुजसवेली भास (ढाल १ पंक्ति १३) के अनुसार उपाध्यायजी की बडी दीक्षा वि. सं. १६८८ में हुई थी। अतः उनका जन्म वि. सं. १६८० के आसपास होना चाहिए। अन्यमतानुसार एव ऐतिहैसिक वस्त्रपट में निम्न उल्लेख है: महोपाध्याय श्री ५श्री कल्याणविजयगणिशिष्येण पं. नयविजयगणिना संवत् १६६३ वर्षे कणसारग्रामे लिपीकृतः गणिजसविजययोग्यं ।। श्री ।। यह वस्त्रपट भौगोलिक अभ्यास हेतु बनाया गया था। वस्त्रपट से व 'हेमधातुपाठ' की उपाध्यायजी द्वारा लिखित विक्रम सं. १६६५ की पोथी, वि. सं. १६६९ की उन्नतपुरस्तवन की हस्तलिखित पोथी, तर्कभाषा एवं दशार्णभद्रसज्झाय आदि की हस्तलिखित पोथीओं के अंत के उल्लेखों से उपाध्यायजी का जन्म समय वि. सं. १६४० से १६५० के बीच में होना चाहिए । उपाध्यायजी का अणसणपूर्वक स्वर्गवास डभोई में वि. सं. १७४३ में हुआ था । अतः उपर्युक्त जन्मसमय के हिसाब से उपाध्यायजी ने इस धरा को लगभग एक शताब्दि तक पावन की होगी। ऐसी संभावना है। उपाध्यायजी की ज्ञानगरिमा उपाध्यायजी ने श्रीहरिभद्रसूरिजी की वैविध्यपूर्ण कृतिओं का पान कर के उसका रसास्वाद केवल संस्कृतज्ञ एवं प्राकृतज्ञों तक ही मर्यादित न रख कर गुर्जरभाषीओं को भी कराया है। इसलिए उनका 'हरिभद्र लघुबान्धव' यह उपनाम सार्थक है। उपाध्यायजी ने अहमदाबाद में वि. सं. १६९९ में सभासमक्ष आठ बड़े अवधान किये थे। अतीतकाल में मुनिसुन्दरसूरिजी 'सहसावधानी' एवं सिद्धिचन्द्रगणिजी 'शतावधानी' के रूप में जिनशासन में सुप्रसिद्ध हैं । उपाध्यायजीने किस प्रकार के अवधान किए थे यह विषय अज्ञात सा है । उपाध्यायजी के अवधान से प्रभावित बने धनजी सूरा श्रावक ने नयविजयजी गणि को कहा कि "उन्हें पढाओंगे तो ये दूसरे 'हेमचन्द्रसूरिजी बनेंगे इसी श्रावकरन ने काशी अध्ययन हेतु आर्थिकव्यवस्था स्वयं के जिम्मे ली थी। जैसे श्रीहरिभद्रसूरिजी एवं श्री हेमचन्द्रसूरिजी 'कलिकालसर्वज्ञ' कहलाते हैं वैसे ही सुजसवेलीभास में उपाध्यायजी को "कलिकाल श्रुतकेवली' कहा गया है । . साहित्यक्षेत्र में उनकी कृतियाँ संस्कृत, प्राकृत, गुजराती और हिंदी मारवाड़ी में गद्यबद्ध पद्यबद्ध और गद्यपद्यबद्ध हैं शैली की दृष्टि से उनकी कृतियाँ खण्ड़नात्मक भी हैं, प्रतिपादनात्मक भी हैं और समन्वयात्मक भी। उनकी अपूर्व साहित्यसेवा से पता चलता है कि वे व्याकरण, काव्य, कोष, अलंकार, छंद, तर्क, आगम, नय, निक्षेप, प्रमाण, सप्तभंगी आदि अनेक विषयों के सूक्ष्मज्ञान के धारक थे। उनकी तर्कशक्ति एवं समाधान करने की शक्ति अपूर्व थी। उपाध्यायजी की विशिष्टता है कि वे तर्काधिपति होते हुए भी उन्होंने तर्क एवं सिद्धान्त को सन्तुलित रखा है। सामान्य से उन्होंने अपने ग्रन्थों में खुद के कथन की पुष्टि हेतु प्राचीन एवं प्रामाणिक ग्रंथों का हवाला देने में कसर नहीं रखी है। उपाध्यायजी के जीवन की अन्य विशिष्ट घटनाओं के बारे में अनेक ग्रन्थों में उल्लेख है । अतः जिज्ञासु वाचकवर्ग उनके ३. "आचार्यश्री विजयवल्लभसूरिस्मारकग्रन्थ" पृ. १७५ । ४. हीरविजयसूरिजी के शिष्य कीर्तिविजयगणि के शिष्य कांतिविजयजी ने उपाध्यायजी के स्वर्गवास के बाद लिखी हुई 'सुजसवेलीभास' पृ. २९ पर इस प्रकार का निर्देश है : 'लघु बान्धव हरिभद्रनो' कलि युगमां से थयो बीजो रे ढाल ४ कडी ४. ५. सुजसवेलीभासयोग्य पात्रविद्या तणुंजी थास्ये ए बीजो हेम. ढाल १, कडी ४. ६. प्रभवादिक श्रुतकेवलीजी, आगई हुआ षट् जेम, कलिमांहि जोता थकांजी ए पण श्रुतघर तेम-ढाल १ कढ़ी ४ (iv)
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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