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________________ विनयंधर की कथा अंगहीन कंदर्प भी जीतता रहता है तो फिर वे शूरवीर गिने जाकर नरासह कैसे कहलावें ? परस्त्री की इच्छा करते हुए सदाचार रूप जीवन से होन महा-मलिन- जन महा पापियों के समान अपना मुख किस प्रकार बता सकते होंगे ? यहां आत्म विनाश करके, कुल को कलंकित कर व अपकार्ति पाकर प्रज्वलित संसार के अति दुस्सह अग्नि ताप में तम हो जीव भटका करते हैं । इस प्रकार शील-भ्रष्ट नीच पुरुषों के अनेक दोष सुनकर हे कुलीन जनों ! तुम शील रूप रत्न को मन से भी मैला मत करो । ४६ यह सुनकर राजा ने विलक्ष होकर वह संपूर्ण दिन व रात्रि जैसे तैसे व्यतीत की तथा प्रातःकाल में पुनः उनके पास आया । इतने में वे सर्व स्त्रियाँ उसको अग्नि-ज्वाला समान पीले केश वाली अतिशय विभत्स व जीर्ण वस्त्र और मलीन शरीर वाली दिखने लगीं। स्त्रियाँ यौवन-हीन हुई और रांगी-जन को वैराग्य उत्पन्न करने में समर्थ हुई ऐसी उसे दिखीं, जिससे उदास हो वैराग्य पा राजा विचार करने लगा। क्या ये नजरबन्द हैं कि मेरा मति विभ्रम है, कि स्वप्न है, कि कोई दिव्य प्रयोग है अथवा कि मेरे पाप का प्रभाव है ? हाय हाय ! मैंने कम बुद्धि हो सदा विमल अपने कुल को कलंकित किया और जगत में तमाल पत्र के समान श्यामल अपयश फैलाया । इत्यादिक नाना प्रकार से पश्चाताप कर राजा ने उन्हें विनयंधर के पास भेज दीं, वहां आते ही वे तत्काल यथावत् रूपवान हो गई । इतने ही में उस नगर में श्री शूरसेन नामक महान् आचार्य पधारे, उनको नमन करने के लिए उनके पास राजा, विनयंधर
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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