SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लोकप्रियता गुण पर तथा नागरिक लोग आये । आकर तीन प्रदिक्षणा दे अपूर्व भाव से गुरु को नमन करके सब यथायोग्य स्थान पर बैठ गए व गुरु ने निम्नानुसार धर्म कथा कही । 2 राग, द्वेष और मोह को जीतने वाले जिनेश्वरों ने दो प्रकार का धर्म बताया है । एक सुसाधु का धर्म और दूसरा गृहस्थी - धर्म याने श्रावक धर्म । यह दोनों प्रकार का धर्म मुक्तिपुरी को ले जाने वाला है । वहां जो प्राणी सावद्य कार्य त्यागने के लिए उद्यत हो, सरल रहे, पांच महाव्रत रूप पर्वत का भार उठाने के लिए तैयार हो । पंच समिति और तीन गुप्ति से पवित्र रहे, ममत्व से रहित हो, शत्रु और मित्र में समचित्त रखने वाला हो, क्षांत --दान्तशांत हो, तव का ज्ञाता हो और महा सत्त्ववान हो । निर्मल गुणों से युक्त और गुरु सेवा में भक्तिवान हो, ऐसा जो प्राणी हो वह प्रथम धर्म याने साधु धर्म को पालन कर सुमार्ग में लगा हुआ अल्प काल ही में मुक्तिपुरी को पहुँचता है। जो साधु धर्म न कर सके उन्होंने श्रावक धर्म पालना चाहिये, कारण कि वह भी कुछ समय में मुक्ति सुख देने में समर्थ है ऐसा शास्त्र में कहा है । इस प्रकार धर्म कथा सुनकर अवसर पर राजा ने गुरु को पूछा कि - हे भगवन् ! विनयंधर ने पूर्व-भव में कौन - सा महान् सुकृत किया है ? जिससे कि यह स्वयं सर्व लोगों को प्रिय हुआ हैं, साथ ही इसकी स्त्रियाँ अतिशय रूपवती हैं. (तथा हे भगवन ! यह बात भी कहो कि ) मैंने उन्हें कैद कीं उस समय वे विरूप कैसे हो गई ? तब गुरु कहने लगे कि - हस्तिशीर्ष नामक नगर में अपने उज्ज्वल यश से दिगंत को उज्ज्वल करने वाला विचारधवल नामक राजा था । उस राजा का चर नामक वैतालिक था । वह
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy