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________________ भवजलहिमि अपारे, दुलह मणुयत्तणं पि जंतणं । तत्थवि अणत्यहरणं, दुलह सद्धम्मवररयणं ॥२॥ (मूल गाथा का अर्थ) अपार संसाररूप सागर मैं (भटकते) जन्तुओं को मनुष्यत्व (मिलना) भी दुर्लभ है, उस (मनुष्यत्व) में भी अनर्थ को हरने वाला सद्धर्मरूपी रत्न (मिलना) दुर्लभ है। (भू धातु का अर्थ उत्पन्न होना होने से) प्राणी कर्मवश नारक, तियंच-नर तथा देवरूप में उत्पन्न होते रहते हैं जिसमें उसे भवसंसार जानो वही भव-जन्म जरा मरणादिरूप जल को धारण करने वाला होने से जलधि माना जा सकता है, अब वह भवजलधि आदि और अन्त से रहित होने के कारण अपार याने असीम है, उसमें भटकते' इतना पद अभ्याहार करके जोड़ना है-(उससे यह अर्थ हुआ कि-अपार संसाररूप सागर में भटकते जन्तुओं को- मनुजत्व-मनुष्यपन भी दुर्लभ-दुःख से मिल सकता है, परन्तु कहने का यह मतलब कि देश-कुल-जाति आदि की सामग्री मिलना दुर्लभ है यह बात तो दूर ही रही, परन्तु स्वतः मनुष्यत्व भी दुर्लभ है। जिसके लिये जगत् के वास्तविक बन्धुः श्री वर्द्धमान स्वामी ने अष्टापद पर्वत पर से आये हुए श्री गौतम महामुनि को (निम्नानुसार) कहा है,-- " सर्व प्राणियों को चिरकाल से भी मनुष्य भव (मिलना) वास्तव में दुर्लभ है, कर्म के विपाक आकरे (भयंकर) हैं-इसलिये हे गौतम ! तू क्षणमात्र (भी) प्रमाद-आलस्य मत करना." अन्य मतावलम्बियों ने भी कहा है कि
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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