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________________ मनुष्यपना की दुर्लभता अपार संसाररूप अरण्य में भटकता हुआ प्राणी ( वहां ) ऊगे हुए करून (मृगांका) जलाकर सुखरूप पाक के बीजरूप मनुष्यत्व को सचमुच कष्ट ही के द्वारा पा सकता है । " 66 66 "" मनुष्यों में चक्रवर्ती प्रधान है, देवों में इन्द्र प्रधान है, पशुओं में सिंह प्रधान है, व्रतों में प्रशम-शान्तिभाव प्रधान है, पर्वत में मेरु प्रधान है और भवों में मनुष्य भव प्रधान है । अमूल्य रत्न भी पैसे के जोर से सहज में प्राप्त किये जा सकते हैं, परन्तु कोटि-रत्नों द्वारा भी मनुष्य की आयु का क्षण मात्र प्राप्त करना दुर्लभ है" "" जन्नुओं को याने प्राणियों को वहां भी अर्थात् मनुष्यपन में भो अनर्थ हरण याने अनर्थ अर्थात्-जिसको अर्थना - अभिलाषा न करें ऐसे दारिद्र तथा नोच उपद्रव आदि अपाय — उनका हरण होनाश हो जिसके द्वारा - वह अनर्थ हरण, वह क्या सो कहते हैं, - सत् उत्तम अर्थात् पूर्वापर अविरोध आदि गुणगण से अलंकृत होने के कारण अन्यवादियों द्वारा कल्पित धर्मों की अपेक्षा से शोभन ऐसा जो धर्म वह सद्वर्म--अर्थात् सम्यक् दर्शनादिक धर्मवह सद्धर्म हो शाश्वत और अनंत मोक्षरूर अर्थ का देने वाला होने से इस लोक हो के अर्थ को साधनेवाले अन्य रत्नों की अपेक्षा से वर याने प्रधान होने से सद्धर्म वररत्न कहलाता है वह दुर्लभदुष्प्राप्य है । (२) मूल की तीसरी गाथा के लिये अवतरण. अब इस अर्थ को उदाहरण सहित स्पष्ट करते हैं. जह चिंतामणिरयणं, सुलहं न हु होइ तुच्छविवाणं । गुणविश्ववजियाणं, जियाण तह धम्मरयणं पि ॥ ३ ॥ (मूल गाथा का अर्थ )
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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