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________________ तब भी रक्षण की लेश्या जोरदार हो, तब उसका चितन उग्र व क्र.र हो जाने से रोद्रध्यान रूप बन जाता है। धन की रक्षा के चिंतन में उग्रता इसलिए आती है कि उस धन को किसी भी तरह करके रक्षा करने की तीव्र इच्छा है. इससे वह दूसरों के बारे में यह शंका करता है कि 'वह ले तो नहीं जावेगा?' पून: इस भय के बढने पर इस धन के निमित्त से आवश्यकता होने पर जीवहिंसा तक की कर लेल्या होती है कि 'सब को मार डालना अच्छा है।' भिखारी को उसके फूटे बर्तन में मिले हुए झूठे-ऐंठे माल पर भी अति ममतावश उसके संरक्षण की चिंता में उसे ऐसा होता है कि 'यह मैं किसी भी भिखारी को नहीं बताऊँगा, कहीं अकेले कोने में जाकर थोड़ा थोड़ा खाऊं जिससे जल्दी खतम न हो। इसमें यह भी सम्भव है कि वहां ही दूसरे भिखारी भी मांगने आवें ! तो उन्हें जरा भी नहीं दूं। कदाचित् कोई इसे खींच लेना चाहे, तो मैं उसे क्यों देने लगा? उनके बाप का माल है ? लेने तो आवें ? उनका सिर ही तोड़ डालू।' यह संरक्षणानुबन्धी रौद्रध्यान है। तो बड़े लोभी राजा की भी क्या दशा है ? वह भी अपना राज्य टिकाने के लिए मौके बे मौके ऐसे विकल्प करने लगता है। कल्पना में किसी अन्य राजा के आक्रमण का, उसकी सेना के साथ के मुकाबले का तथा उसका निकन्दन निकालने का सोचकर अपने राज्य के संरक्षण करने के रौद्रध्यान में चढता है। यह रौद्रध्यान सज्जनों के लिए इष्ट नहीं है, क्योंकि इसमें एक तो नाशवान परिग्रह को अति ममता से परमात्मा आदि का शुभ ध्यान चूकते हैं। दूसरे अच्छे मनुष्यों के लिए भी यह शंका रहती है कि 'वह ले तो नहीं जावेगा? किसे पता वह क्या करेगा?' आदि फिर इनमें आगे बढने पर उन क्रोध हिंसा आदि के पाप
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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