SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ७१ ) इयकरणकारणाणु मइविसय मणुचिंतणं चउम्भेयं । अबिरय- देसासंजय जणमणसंसेवियमहापणं ॥२३।। अर्थ:- इस प्रकार स्वयं करने, दूसरे के पास से करवाने तथा करने वाले का अनुमोदन करने सम्बन्धी पर्यालोचन चारों प्रकार के रौद्रध्यान में होता है। (उसके स्वामी कौन हैं ?) अविरति मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि और देशविरति श्रावकों तक के जीवों के मन से इसका सेवन हो सकता है और वह अहितकर निन्द्य पाप है। विचार सरल-सुलभ बन जाते हैं; चित पापिष्ठ अध्यावसायों से व्याकुल रहता है। यहां प्रारम्भ में 'शब्दादि विषयों के साधन रूप' ऐसा धन का विशेषण रखा है। यह सूचित करता है कि केवल ऐसे विषयों की प्राप्ति तथा भाग के उद्देश्य से धन का संरक्षण करने का ध्यान रौद्रध्यान तक पहुँच जाता है। परन्तु देवद्रब्य की संपत्ति या जायदाद की रक्षा का चिंतन दुर्ध्यान नहीं होगा। देवद्रव्य की रक्षा की बुद्धि तो धर्म बुद्धि है। रौद्रघ्यान किसे होता है तथा ध्यान की कौन सी कक्षा में आता है अब चारों प्रकार के रौद्रध्यान की विशेषता बताते हुए उपसंहार करते हैं:विवेचन : हिंसा, मृषा, चोरी तथा संरक्षण सम्बन्धी क र चिंतन हिंसादि स्वयं करने से ही होगा, ऐसा नहीं है; किन्तु हिंसादि दूसरों के पास करवाने सम्बन्धी भी उग्र चिंतन हो सकता है। तथा दूसरे ये हिंसादि
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy