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________________ ( १६३ ) रागद्दोस कसायाऽऽसवादिकिरियासु वट्टमाणाणं । इह परलोयावाए माइज्जा वजपरिवज्जी ।।५।। ___ अर्थः-राग, द्वेष, कषाय तथा प्राश्रवादि क्रियाओं में प्रवृत्त को इस लोक व परलोक के अनर्थ कैसे होते हैं, वयं (अकृत्य) का त्यागी उसका ध्यान करे, उसे एकाग्रता से सोचे । मोह याने अज्ञान; वस्तु का बराबर पता न होने से भी असत्य बोला जाता है । ऐसे राग द्वष या मोह के कारण कथन में झूठ आता है। किन्तु इन जिनेश्वर भगवान ने तो असत्य के कारणरूप राग द्वेष व मोह सब को जीत लिया है। 'रागादि को जीते वह जिन' अर्थात् रागादि को हमेशा के लिए अपनी आत्मा में से हटा दिया है, फिर "न्हें असत्य बोलने का कोई भी कारण रहता ही नहीं है। इसलिए वे 'अन्यथावादी' याने हो उससे भिन्न (या फर्क वाला) बोलने वाले हो ही नहीं सकते। इससे उनके वचन में या उनके कहे पदार्थ में असत्यता हो सकती हो कहां से ?' अत: अपनी मति-दुर्बलता आदि के कारण से समझ में न आवे तो भी जिनवचन-जिनाज्ञा को एकांत (सम्पूर्ण) सत्य तथा हितकर मान कर उसका पूर्वोक्त विशेषणों से ध्यान करना चाहिये । यह पहला 'आज्ञाविचय' नामक धर्मध्यान हुआ। यह धर्मध्यान के ध्यातव्य का प्रथम नेद । २. अपाय-विचय __ अब ध्यातव्य का दूसरा भेद 'अपाय विचय' कहते हैं:विवेचन : धर्मध्यान का दूसरा प्रकार 'अपायविचय' है। इसमें रागादि क्रिया से इस लोक व परलोक में उत्पन्न अनर्थ कैसे हैं यह ध्यान करने का है । वह क्रमशः इस तरह है:
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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