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________________ ( १६४ ) जीव का स्वभाव अक्रिय अवस्था है; जिसमें कोई राग क्रिया, द्वेष क्रिया, कषाय क्रिया, मिथ्यात्वादि आश्रव क्रियाग या हिंसादि की कायिकी आदि क्रिया करने का नहीं है। परन्तु संसार में ये क्रियाएं कर के जीव दुःख और पाप तथा दीर्घ-संसार भ्रमण ही पाता है । कहा है कि: . राग-द्वेप के अनर्थ गगः संपद्यमानोऽपि दुःखदो दृष्टिगोचरः । महाव्याध्यभिभूतस्य कुपथ्यान्नाभिलाषवत् ।। दृष्ट्यादि-भेद-भिन्नस्य रागस्यामुष्मिकं फलम् । दीर्घः संसार एवोक्तः सर्वज्ञः सर्वदर्शिभिः ।। अर्थः-अप्रशस्त वस्तु का राग उठते ही दुःखदाई बनता है; जैसे महारोग से घिरे हुए को कुपथ्य खुराक की अभिलाषा। मन में कुपथ्य खाने की इच्छा उठते ही शरीर पर उसका प्रभाव पड़ता है । ऐसे ही यहां विषयादि का राग उठने पर भी दुःख अशान्ति व अस्वस्थता का प्रारम्भ होता है । बाद में होने वाले दुःखों को तो क्या पूछना? दृष्टि आदि प्रकारों से भिन्न भिन्न राग का याने (१) दृष्टिराग (किसी असत् मान्यता की पकड़), (२) कामराग, और (३) स्नेहराग का परलोक में फल सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थकर भगवन्तों ने दीर्घ संसार कहा है। द्वेषः संपद्यमानोऽपि तापयत्येव देहिनाम् । कोटरस्थो ज्वलन्नाशु दावानल इव द्र मम् ।। दोसानल संसचो इहलोए चेव दुक्खिश्रो होई । परसोयंभि य पात्रो पावइ निरयानलं तत्तो ॥
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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