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________________ श्राद्धविधि प्रकरण ८९ वारंवार अमृत वाणी सुनते हुये भो कौवे आदि के मांसमात्र का प्रत्याख्यान न किया । प्रत्याख्यान करने ही अविरत को जीता जाता हैं । प्रत्याख्यान भी अभ्यास से होता है । अभ्यास द्वारा ही सर्व क्रियाओं में कुशलता आती है । अनुभव सिद्ध है कि लेखनकला पडनकला, गीतकला, नृत्यकला, आदि सव कलायें बिना अभ्यासके सिद्ध नहीं होती। इसलिये अभ्यास करना श्रेयस्कर है। कहा है कि - अभ्यासेन क्रियाः सर्वा । अभ्यासात्सकलाः कलाः ॥ अभ्याद्ध्यानमौनादिः किमभ्यासस्य दुष्करम् ॥ १ ॥ 1. अभ्यास से सब क्रिया, सव कला, और ध्यान मौनादिक सिद्ध होते हैं। अभ्यासको क्या दुष्कर है है निरंतर विरति परिणामका अभ्यास रक्खा हो तो परलोकमें भी वह साथ आती हैं कहा है कि, ॐ अम्भसेइ जीवो । गुणं च दोसं च एथ्थ जम्र्ममि । तं पावइ परलोए तेय अभ्यासजोएण ॥ १ ॥ गुण अथवा दोषका जीव जैसा अभ्यास इस भवमें करता है वह अभ्यास ( संस्कार ) उसे परलोक में भी उदय आता है। इसलिये अपनी इच्छानुसार यथाशक्ति बारह व्रतके साथ सम्बन्ध रखनेवाले व्रत नियम वगैरह विवेकी पुरुषको अंगीकार करने चाहिये । श्रावक श्राविका के योग्य इच्छा परिमाण व्रत लेनेसे पहिले खूब विचार करना चाहिए कि जिससे भलीभांति पल सके वैसा ही व्रत अंगीकार किया जाय। यदि ऐसा न करे तो व्रत भंगादि अनेक दोषोंका संभव होता है । अर्थात् जो जो नियम अंगीकार करने वे प्रथम विचार पूर्वक ही अंगीकार करने चाहिए जिससे कि वे यथार्थ रीति से पाले जा सकें । सर्व नियमोंमें "सहस्सागारेण” अनथ्थणा भोगेणं, महत्तरागारेणं सव्व समाहिवत्तिया गारेणं, " इन चारों आगारोंको खुला रखना चाहिये ।यदि पहिले से ऐसा किया हुवा हो तो किसी कम वस्तु के खुला रखने पर भी अनजानतया विशेष सेबन की गई हो तथापि व्रतभंगका दोष नहीं लगता । फक्त अतिचार मात्र लगता है परन्तु यदि जानकर एक अंशमात्र भी सेवन की जाय तो व्रतभंगका दूषण लगता है । कदापि कर्म दोषसे या परवशतासे व्रतभंग हुवा जानकर भी पीछेसे विवेकी पुरुषको उस अपने नियमको पालन ही करना चाहिये। जैसे कि, पंचमी या चतुर्दशी आदि तिथिके दिन तिथ्यंतरकी भ्रांति से सवित्त या सब्जी त्याग करनेका नियम होनेपर वह वस्तु मुखमें डाल दिये बाद मालूम हो जाय कि आज मेरे नियमका पंचमी दिन या चौदस है तो उस वक्त मुख में रहे हुये उस बस्तु एक अंशमात्र को भी न सटके किन्तु वापिस थूककर अचित्त जलसे मुखशुद्धि करके पंचमी या चतुर्दशीके नियमके दिन समान ही वर्तें । उस दिन भूलसे ऐसा भोजन संपूर्ण किया गया हो तो दूसरे दिन उसके प्रायश्चित्तमें उस नियमका पालन करे। जबतक अपने व्रतवाले दिनका संशय हो, या काल्पनिक वस्तुका संशय हो तबतक यदि उसे ग्रहण करे तो दोष लगता है, जैसे कि, है तो सप्तमी तथापि अष्टमीकी भ्रांति हुई, तब अष्टमी का निर्णय न हो तबतक सब्जी वगैरह ग्रहण नहीं की जा सकती यदि ११
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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