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________________ श्राद्धविधि प्रकरण खाय तो व्रतभंगका दूषण लगता है ) अधिक बिमारी हुई या भूतादि दोष की परवशतासे या सर्प दंशादि असमाधी होनेसे यदि उस दिन तप न किया जा सके तथापि चार आगार खुले रहते हैं इसलिये व्रतभंग दोष नहीं लगता। सब नियमों में ऐसा ही समझना चाहिये कहा है कि वयभंग गुरुदोसो । थोवस्स विधालगा गुणकारीअ ॥ गुरुलाघयं च नेयं । धम्ममि अओअ आगारा॥ थोड़ा भी व्रतका पालन करना बहुत ही गुणकारी है और व्रतभंगसे.बड़ा दोष लगता है। नियम धारण कानेका बड़ा फल है, जैसे कि किसी वणिक पुत्रने अपने घरके नजदीक रहने वाले कुम्हारके मस्तककी साल देखे बिना भोजन न करना, ऐसा निमम कौतुक मात्रसे लिया था तथापि वह उसे लाभकारी हुवा। इस प्रकार पुण्य की इच्छा करने वाले मनुष्यको अल्प मात्र अंगीकार किया हुवा नियम महान लाभकारी होता है। "नियम लेनेका विधि” प्रथमसे मिथ्यात्व का त्याग करना, जैन धर्मको सत्य समझना, प्रति दिन यथाशक्ति तीन दफा या दो दफा अथवा एकबार जिन पूजा या जिनेश्वर भगवान के दर्शन करना या आठों थुइयों से या चार थुइयों से चैत्यवंदन करना वगैरहका नियम लेना इस प्रकार करते हुए यदि गुरुका जोग हो तो उन्हें वृद्धवंदन, या लघुवंदन, (द्वादशवर्त वंदन) से नमस्कार करना, और गुरुका जोग न हो तो भी अपने धर्माचार्य (जिससे धमका बोध हुवा हो ) का नाम लेकर प्रतिदिन वंदन करने का नियम रखना चाहिये। चातु. मास में पांच पर्वमें अष्टप्रकारी पूजा या स्नात्रपूजा करनेका, यावजीव प्रतिवर्ष जब नवीन अन्न आवे उसका नैवेद्य कर प्रभुके सन्मुख चढ़ा कर बादमें खाने का, एवं प्रति वर्ष जो नये फल फूल आवे उन्हें प्रथम प्रभु को चढ़ाकर बादमें सेवन करनेका, प्रतिदिन सुपारी, बादाम वगैरह फल चढ़ाने का, आषाढ़ी, कार्तिकी और फाल्गुनी, पूर्णिमा तथा दीवाली पर्युसण वगैरह बड़े पर्व दिनों में प्रभु के आगे अष्टमङ्गलिक करने का निरन्तर पर्वमें या वर्षमें, कितनी एक दफा या प्रतिमास अशन, पान, खादिम, स्वादिमादिक उत्तम वस्तुयें जिनराजके सन्मुख चढ़ा कर या गुरूको अन्नदान देकर बादमें भोजन करनेका प्रतिमास या प्रतिवर्ष अथवा मन्दिरकी वर्षगांठ अथवा प्रभु के जन्म कल्याणक आदिके दिनोंमें मंदिरों में बड़े आडम्बर महोत्सव पूर्वक ध्वजा चढाने का, एवं रात्री जागरण करने का, निरन्तर या चातुर्मासमें मन्दिर में कितनी एक दफा प्रमार्जन करने का प्रतिवर्ष यो प्रतिमास जिन मंदिरमें अंगलूना, दीपकके लिए सूत या रुईकी पूनी, मंदिरके गुभारके बाहरके कामके लिये तेल, अन्दर गुभारे के लिये घो, और दीपक आच्छादक, प्रमार्जनी, (पूजनी) धोतियां उत्तरासन, वालाकूची, चंदन, केशर, अगर, अगरबत्ती वगैरह कितनी एक वस्तुयें सर्वजनों के साधारण उपयोगके लिये रखनेका, पोषधशालामें कितनी एक धोतियां, उत्तरासन, मोहपत्ती, नवकार वाली, प्रोछना, चर्वला, सूत, कंदोरा, रुई, कंबली, वगैरह रखने का, बरसात के समय श्रावक वगेरहको बैठनेके लिए कितने एक पाट, पाटले, चौकी, बनवाकर शाला में रखने का प्रतिवर्ष वस्त्र आभूषणादिक से या अधिक न
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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