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________________ iii श्राद्धविधि प्रकरगां निरर्थक जानना । यदि पहिले अशुभ स्वप्न देखकर फिर शुभ, या पहिले शुभ देखकर फिर अशुभ स्वप्न देखे तो उसमें पिछला ही स्वप्न फलदायक होता है । अशुभ स्वप्न देखा हो तो शांतिक कृत्य करना चाहिये । स्वप्न देखे बाद तुरंत ही उठकर जिनेश्वर भगवान का ध्यान करे या नवकार मंत्रका स्मरण करे तो वह शुभ फलदायक हो जाता है। भगवान की पूजा रचावे, गुरु भक्ति करे, भक्ति के अनुसार निरंतर धर्म में तत्पर हो तप करे तो खराब स्वप्न भी सुखप्न बन जाता है । देव, गुरु, तीर्थ और आचार्य का नाम लेकर या स्मरण करके सोवे तो वह किसी समय भी खराब स्वप्न नहीं देखता, प्रातः काल में पुरुष को अपना दाहिना हाथ और स्त्रो को अपना बांया हाथ अपने पूज्य प्रकाशक होने से देखना चाहिये । मातृप्रभृतिवृद्धानां नमस्कारं करोति यः । तीर्थयात्राफलं तस्य तत्कार्योसो दिने दिने ॥ अनुपासितवृद्धानामसेवितमदीभूजां । अवारमुख्या सुहृदां दूरे धर्माश्चतुष्यः ॥ माता पिता और वृद्ध भाई आदि को जो नमस्कार करता है, उसे तीर्थयात्रा का फल होता है, इसलिये सुबह प्रतिदिन वृद्ध वंदन करना चाहिये। जिसने वृद्ध पुरुषों की सेवा नहीं की उसे धर्म की प्राप्ति नहीं, जिसने राजा की सेवा नहीं की उसे सम्पदा नहीं । और जिसने चतुर पुरुषों की सीख नहीं मानी उसे सुख नहीं प्रतिक्रमण करनेवाले को प्रत्याख्यान करने से पहिले सवित्तादि चौदह नियम ग्रहण करने पड़ते हैं सो करे एवं जो प्रतिक्रमण न करता हो उसे भी सूर्योदय से पेश्तर अपनी शक्ति के अनुसार चौदह नियम अंगी - कार करना उचित है शक्ति के प्रमाण में 'नमुक्कारसहि' आदि प्रत्याख्यान करना चाहिये। गंटसही, एकाशन, ह्रासन करना योग्य है। चौदह नियम धारण किये हों उसको देशावगाशिक का प्रत्याख्यान करना चाहिये । विवेकी पुरुष को सद्गुरु के पास सम्यक्त्व मूल यथाशक्ति श्रावक के एकादि बारह व्रत अंगीकार करने चाहिये । बारह व्रतों का अंगीकार करना यह सर्वप्रकार से विरतिपन गिना जाता है। विरती को महाफलकी प्राप्ति होती है अविरती को तो निगोद के जीवोंके समान मानसिक, वाचिक, शारीरिक व्यापार न होने पर भी अधिक कर्मबंधादि महा दोष का संभव होता है। कहा है कि जिस भाववाले भव्य प्राणी ने थोड़ीभी विरति की है तो उसे देवता भी चाहते हैं क्योंकि देवता स्वयं विरति नहीं कर सकते । एकेंद्रिय जीव कबलाहार नहीं करते परन्तु विरति (त्याग) परिणाम के अभाव से उन्हें उपवास का फल नहीं मिलता। मन, वचन, काया से पाप न करनेपर भी अनंत कालतक जो एकेन्द्रि जीव एकेन्द्रिय पने रहते है सो भो अविरती का हो फल है। पशु (अश्वादिक) चाबुक, आर, भार वहन, वध, बंधन, वगैरह सैकड़ों प्रकार के दुःख पाते हैं, यदि पूर्वभव में विरती की होती तो इन दुःखों का सामना क्यों करना पड़ता । अविरत नाम कर्म के उदय से देवताओं के समान गुरु उपदेश आदि का योग होने पर भी नवकारसी मात्रका प्रत्याख्यान न किया ऐसे श्रेणिक राजा ने क्षायिक समकितवंत और भगवंत महावीर स्वामी की
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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