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________________ श्राद्धविधि प्रकरण ऐसे अवसर में मानो श्रीदत्त के पुण्य से ही आकर्षित हो विहार करते हुए श्री मुनिचन्द्र नामा केवली महाराज वहां पर आ पधारे । बहुत से मुनियों के साथ वे महात्मा नगर के बाह्योद्यान में आकर ठहरे । उद्यान पालक द्वारा राजा को खबर मिलते ही वह अपने परिवार सहित केवली सन्मुख आकर वंदन-नमस्कार कर योग्य स्थान पर आ बैठा । तदनंतर जैसा भूखा मनुष्य भोजन की इच्छा करे वैसे राजा देशना की याचना करने लगा। जगबंधु केवली महाराज बोले-"जिस पुरुष में धर्म या न्याय नहीं उस अन्यायी को वानर के गले में जैसी रत्न की माला शोभा नहीं देती वैसे ही देशना देने से क्या लाभ ? चकित होकर राजा ने पुछा कि भगवन् मुझे अन्यायी क्यों कहते हो ? केवली महराज ने उत्तर दिया कि सत्यवक्ता श्रीदत्त को क्य करने की आज्ञा दी इसलिये । यह वचन सुन कर लजित हो राजा ने आदर सन्मान पूर्वक श्रीदत्त को अपने पास बैठा कर कहा कि तू अपनी सत्य हकीकत निवेदन कर। जब वह अपनी सत्य घटना कहने लगा उतने में हा सुवर्णरेखा को अपनी पीठ पर बैठाये वही वानर वहां पर आ पहुंचा और उसे नीचे उतार कर केवली भगवान् को नमस्कार कर सभा में बैठ गया। यह देख सब लोग आश्चर्य चकित हो उसकी प्रशंसा कर बोलने लगे कि सचमुच ही श्रीदत्त सत्यवादी है। इस सर्व वृत्तांत में जिसे जो जो संशय रहा था सो सब केवली भगवान् को पूछ कर दूर किये । इस समय सरल परिणामी श्रीदत्त केवलज्ञानी महराज को वंदन कर पूछने लगा कि है भगवन् ! मेरी पुत्री और माता पर मुझे स्नेह उत्पन्न क्यों हुआ ? सो कृपाकर फरमाइये। महात्मा श्रा बोले पूर्वभव का वृत्तांत सुनने से सर्व बातें तुझे स्पष्टतया मालूम हो जावेंगी।" पंचाल देश के काम्पिल पुर नगर में अग्निशर्मा ब्राम्हण को चैत्र नामक एक पुत्र था। उस चैत्र को भी महादेव के समान गौरी और गंगा नाम की दो स्त्रियां थी। ब्राम्हणों को सदेव भिक्षा विशेष प्रिय होती है, अतः एक दिन चैत्र अपने मैत्र नामक ब्राम्हण मित्र के साथ कोंकण देश में भिक्षा मांगने गया। वहां बहुत से गांवों में बहुतसा धन उपाजन कर वे दोनों स्वदेश तरफ आने को निकले। रास्ते में धन लोभी हो खराब परिणाम से एक दिन चैत्र को सोता देख मैत्र विचार करने लगा कि इसे मार कर मैं सर्व धन लेलूं तो ठीक हो। इस विचार से वह उसका वध करने के लिए उठा, क्योंकि अर्थ अनर्थ का ही मूल है। जैसे दुष्ट वायु मेव का विनाश करता है वैसे ही लोभी मनुष्य तत्काल विवेक, सत्य, संतोष, लज्जा, प्रेम, कृपा, दाक्षिण्यता आदि गुणों का नाश करता है । दैवयोग से उसी वक्त उसके हृदय में विवेक रूप सूर्योदय होने से लोभरूप अन्धकार का नाश हुआ। अतः वह विचारने लगा कि धिःकार है मुझे कि जो मुझ पर पूर्ण विश्वास रखता है उसी पर मैंने अत्यन्त निंदनीय संकल्प किया ! अतः मुझे और मेरे दुष्कृत्य को धिःकार है। इस तरह कितनीक देर तक पश्चात्ताप करने के बाद उसने अपने घातकीपन की भावना को फिरा डाला। कहा है कि, ज्यों ज्यों दाद पर खुजाया जाय त्यों त्यों वह बढ़ती ही जाती है वैसे ही ज्यों २ मनुष्य को लाभ होता जाता है त्यों २ लोभ भी बढ़ता ही जाता है । इसके बाद इसी प्रकार दोनों के मन में परस्पर घातकीपन की भावना उत्पन्न होती और शांत हो जाती। इन्हीं विचारों में कितनेक दिन तक उन्होंने कितनी एक पृथ्वी का भ्रमण किया। परन्तु अन्त में वे अति लोभ के वशीभूत होकर वे दोनों मित्र तृष्णा रूप वैतरणी नदी के प्रवाह में बहने हो।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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