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________________ श्राद्धविधि प्रकरण နင် "चौरों में शिरोमणि श्रीदत्त ने सुवर्णपुरुष के समान आज सुवर्णरेखा को चुरा लिया " राजा विचार ने लगा जैसे उंट की चोरी छिप नहीं सकती वैसे ही वेश्या की चोरी भी बिलकुल छिपाने पर भी नहीं छिप सकती। राजा ने श्रीदत्त को बुलाकर पूछा उस वक्त उसने भी कुछ सत्य उत्तर न देकर उलझन भरा जबाब दिया । असंभाव्यं न वक्तव्यं प्रत्यक्ष यदि दृश्यते । यथा वानर संगीतं यथा तरती सा शिला ॥ १ ॥ "वानर ताल सुर के साथ संगीत गाता है और पत्थर की शिला पाणी में तैरती है, उसी के समान असंभवित ( किसी को विश्वास न आवे ) ऐसा वाक्य प्रत्यक्ष सत्य देख पड़ता हो तथापि नहीं बोलना चाहिये । श्रीदत्त सत्य उत्तर नहीं देता इसलिये इसमें कुछ भी प्रपंच होना चाहिए। यह विचार कर राजा ने जैसे पापी को परमाधामी नरक में डालता है वैसे ही उसे कैद में डाल दिया, इतना ही नहीं किन्तु क्रोधायमान होकर राजा ने उसकी माल मिलकत जप्त करने के उपरांत उसकी पुत्री दास दासी आदि को अपने स्वाधीन कर लिया। क्योंकि जिस पर दैवका कोप हो उस पर राजा की कृपा कहां! नरक वास के समान कारागार के दुःख भोगता हुवा श्रीदत्त विचार करने लगा कि मैंने राजा को सत्य वृत्तांत न सुनाया इसी कारण मुझ पर राजा के क्रोध रूप अग्नि की वृष्टि हो रही हैं। यदि मैं उसे सत्य घटना कह दूं तो उस का क्रोधाग्नि शांत हो कर मुझे कारागार के दुःख से मुक्ति प्राप्त हो। यह विचार कर उसने एक सिपाही के साथ राजा को कहलाया कि मैं अपनी सत्य हकीकत निवेदन करना चाहता हूं। राजा ने उसे बुला कर पूछा तब उसने सर्व सत्य वृत्तांत कह सुनाया और अन्त में विदित किया कि, सुवर्णरेखा को एक वानर अपने स्कंध पर बढ़ाकर ले गया । यह बात सुनकर सभाके लोग विस्नय में पड़कर खिल खिलाकर हंस पड़े और कहने लगे कि देखों इस कपटी की सत्यता ! कैसी चालाकी से अपने आप छूटना चाहता है ! इससे राजा ने उलटा विशेष क्रोधाय - मान हो उसे फांसी लगाने की कोतवाल को आज्ञा की, क्योंकि बड़े पुरुषों का रोष और तोष शीघ्र ही फलदायक होता है। जिस प्रकार कसाई बकरे को बध स्थान पर ले जाता है वैसे ही कोतवाल के दुष्ट सुभट श्री. दत्त को बधस्थान पर ले जा रहे हैं, इस समय वह विचार करने लगा कि माता और पुत्री के साथ संभोग करने की इच्छा से एवं मित्र का वध करने से उत्पन्न हुए पाप का ही प्रायश्चित मिल रहा है। अतः धिःकार है मेरे दुष्कर्म को ! मुझे आश्चर्य सिर्फ इसी बात का है कि सत्य बोलने पर भी असत्य के समान फल मिलता है। अस्तु ! सब कुछ कर्माधीन है। कहा है कि- रिज जलनिवेि कल्लोल भिन्नकुलसेलो | नहुअण्ण जम्मणिम्मिअ सुहासुहो दिव्व परिणामो ॥ २ ॥ " जिसके कल्लोल से बड़े पाषाण भी टूट जाते हैं ऐसे समुद्र को भी सामने आते पीछे फेरा जा सकता है। परन्तु पूर्वभव में उपार्जन किए शुभाशुभ कर्मों का दैविक परिणाम दूर करने के लिये कोई भी समर्थ नहीं हों sherr 199
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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