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________________ श्राद्धविधि प्रकरण ४१ वे अति लोभ के कारण स्वदेश न पहुंच सके और तृष्णा के आर्तध्यान में लीन हो परदेश में ही मृत्यु के शरण हुए। वे कितने ही भवों तक तिर्यंच गति में परिभ्रमण करके अन्त में तुम दोनों श्रीदत्त और शंखदत्त तया उत्पन्न हुये हो ।यानी मैत्र का जीव शंखदत्त और चैत्र का जीव तू श्रीदत्त हुवा है। पूर्वभव में मैत्र ने तुझे पहिले ही मार डालने का संकल्प किया था इससे दूने इस भव में शंखदत्त को प्रथम से ही समुद्र में फेंक दिया । जिसने जिस प्रकार का कर्म किया है उसे उसी प्रकार भोगना पड़ता है। इतना ही नहीं कितु जिस प्रकार देने योग्य देना होता है वह जैसे व्याज सहित देना पड़ता हैं वैसे ही उसके सुख या दुःख उससे अधिक भोगना पड़ता है । तेरी पूर्वभव की गंगा और गौरी नामा दो स्त्रियां तेरी मृत्युके बाद तेरे वियोग के कारण वैराग्य प्राप्त कर ऐसी तापसनियां बनी कि जिन्होंने महीने २ के उपवास करके अपने शरीर को और मन को शोषित बना दिया। कुलवंती स्त्रियों का यही आचार है कि वैधव्य प्राप्त हुये बाद धर्म का ही आश्रय ले। क्योंकि उससे उसका यह भव और परभव दोनों सुधरते हैं। यदि ऐसा न करें तो उन्हें दोनों भव में दुःख की प्राप्ति होती है। उन दोनों तापसनियों में से गौरी को एक दिन मध्याह्न काल के समय पानी की अति तृषा लगने से उसने अपने काम करनेवाली दासीसे पानी मांगा, परन्तु मध्याह्न समय होनेके कारण निद्रावस्थासे जिसके नेत्र मिल गये हैं ऐसी वह दासी आलस्यमें पड़ी रही, परंतु दुविनीतके समान वह कुछ उत्तर या पानी न दे सकी। तपस्वी व्याधिवंत ( रोगी ) क्षुधावंत (भूखा ) तृषावंत (प्यासा) और दरिद्री इतने जनों को प्रायः क्रोध अधिक होता है। इससे उस दासीपर गौरी एकदम क्रोधायमान होकर उसे कहने लगी कि तू जबाब तक भी नहीं देती ? उस वक्त दासीने तत्काल उठकर मीठे वचनपूर्वक प्रसन्नताके साथ पानी लाकर दिया और अपने अपराध की माफी मांगी। परंतु गौरीने उसे दुर्वचन बोलकर महा दुष्ट (निकाचित ) कर्म बंधन किया, क्योंकि यदि हंसी में भी किसी को खेदकारक वचन कहा हो तो उससे भी दुष्ट कर्म भोगना पड़ता है, तब फिर क्रोधावेश में उच्चारण किये हुये मार्मिक वचनों का तो कहना ही क्या ? गंगा तपखिनी भी एक दिन कुछ काम पड़ने पर दासी कहीं बाहर गई हुई होने के कारण उस काम को स्वयं करने लगी । काम होजाने पर जब दासी बाहर से आई तब उसे क्रोधायमान होकर कहने लगी कि क्या तुझे किसी ने कैदखाने में डाला था कि जिससे काम के वक्त पर भी हाजर न रह सकी ? ऐसा कहने से उसने भी मानो गौरी की ईर्षा से ही निकाचित कर्म बंधन किया हो इस प्रकार गंगा ने महा अनिष्टकारी कर्म का बंधन किया। एक समय किसी वेश्या को किसी कामी पुरुष के साथ भोग विलास करते देख गंगा अपने मन में विचारने लगी कि "धन्य है ! इस गणिका को जो अत्यंत प्रशंसनीय कामी पुरुषोंके साथ निरन्तर भोग विलास करती है ! भ्रमरके सेवनसे मानो मालती ही शोभायमान देख पडती हो ऐसी यह गणिका कैसी शोभ रही है और मैं तो कैसी अभागिनी में भी अभागिनी हूं! धिकार है मेरे अवतार को कि जो अपने भर्तार के साथ भी संपूर्ण सुख न भोग सकी! अब अन्त में विधवा बनकर ऐसी वियोग अवस्था भोग रही हूं”। ऐसे दुर्ध्यान से उस दुर्बुद्धि गंगाने जैसे वर्षा ऋतु में लोहा मलिनता को प्राप्त होता है वैसे ही दुष्ट कर्म बन्धन से अपनी आत्मा को मलिन किया । अनुक्रम से वे दोनों स्त्रियां मर कर ज्योतिषी देवता के विमान में देवीतया उत्पन्न हुई। वहां से च्यवकर गौरी तेरी पुत्री और गंगा तेरी माता
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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