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________________ ३८ श्राद्धविधि प्रकरण मुनि महाराज श्रीदत्त को कहते हैं कि हे श्रीदत्त ! यही तेरी माता है कि जो आकार और रूप रंग से भवांतर के समान जुदी ही मालूम देती है। इसके रूप रंग में जो परिवर्तन हुआ है वह जंगल में रहकर खाई हुई औषधियों (वनस्पति) का ही प्रभाव है। इस बात में तू जरा भी संशय न रखना, वह तुझे बराबर पहिचानती है परन्तु लज्जा और लोभ के कारण उसने तुझे इस बात से अनजान रखा है। सचमुच ही वेश्याओं का व्यवहार सर्वथा धिःकारने योग्य है कि जिसमें बुरे कृत्य की जरा भी मर्यादा नहीं | उनमें इतना लोभ है कि अपने पुत्र के साथ कुकर्म करने में जरा भी नहीं शरमाती । पंडित पुरुषों ने वारांगनाओं का समागम अहर्निश निंदने योग्य और विशेषतः त्यागने योग्य कहा है । मुनि के पूर्वोक्त वचन सुनकर खेदयुक्त आश्चर्य में निमग्न हो श्रीदत्त पूछने लगा कि, हे त्रिकालज्ञानी महाराज ! वह वानर कौन था ? और उसे ऐसा क्या ज्ञान था कि जिससे मेरी पुत्री और माता को जान कर मेरी हंसी करके भी सद्वक्ता के समान वाक्य बोला ? वह सचमुच ही उपकारी के समान मुझे अंधकूप में पड़ते हुए को बचाने वाला है। तथा उसे मनुष्य वाचा बोलना कैसे आया ? मुनिराज ने जबाब दिया कि है भव्य श्रीदत्त ! तू इस वृत्तांत को सुन । सोमश्री में एकाग्र चित्त रखने वाला तेरा पिता श्रीमंदिर नगर में प्रवेश करते समय शत्रु के बाण प्रहार से मृत्यु पाकर तत्काल वहां ही व्यंतरिक देव में उत्पन्न हुआ। वह वन में भ्रमर के समान फिरता २ यहां आया था। उसने तुझे देख विभंग ज्ञान से पहचान कर कुकर्म में डूबे हुए को तुझे भवांतर हुवा था तथापि अपने पुत्र पर पिता सदैव हित कारक होता है ! अतः तेरा उद्धार करने की इच्छा से वह किसी वानर में अधिष्ठित होकर तुझे इस बात का इशारा कर और बोध करके चला गया । परन्तु इस तेरी माता सोमश्री पर पूर्वभव का अति प्रेम होने के कारण वह अभी यहां आकर तेरे समक्ष सोमश्री को अपने स्कंध पर बैठा कर कहीं भी ले जायगा । यह वाक्य मुनिराज पुरा कर पाये थे कि इतने में तुरन्त ही वहां पर वही वानर आकर जैसे सिंह अंबिका को अपने स्कंध पर चढ़ा कर ले जाता है वैसे ही सोमश्री को स्कंध पर बैठा कर चलता बना। इस प्रकार संसार की विटंबना साक्षात् देख और अनुभव कर खेद युक्त मस्तक धुनता हुवा श्रीदत्त वहां से मुनिराज को नमस्कारादि करके अपनी पुत्री को साथ लेकर नगर में गया । तदनंतर सुवर्णरेखा की अक्का ( विभ्रवती गणिका) ने दासियों से पूछा कि “आज सुवर्णरेखा कहां गई है ?" दासियों ने कहा “श्रीदत्त सेठ आधालाख 39 1 द्रव्य देकर सुवर्णरेखा को साथ ले बाग बगीचों में फिरने गया अक्का ने सुवर्णरेखा को बुलाने के लिए श्रीदत्त के घर दासी को भेजा। वह श्रीदत्त की दुकान पर जाकर उसे पूछने लगी कि हमारी बाई सुवर्णरेखा कहां है ? उसने गुस्से में आकर उत्तर दिया कि क्या हम तुम्हारे नौकर हैं ? जिससे उसकी निगरानी रखें ! क्या मालूम वह कहां गई है ! यह वचन सुन कर दोष का भंडार रूप उस दासी ने घर जाकर सर्व वृत्तांत अक्का को कह सुनाया । इससे वह साक्षात् राक्षसी के समान क्रोधायमान हो राजा के पास गई और खेद युक्त पुकार करने लगी । राजा ने कहा - " तू किस लिए खेदकारक पुकार करती है ?” उसने जवाब दिया कि
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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