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________________ श्राद्धविधि प्रकरण ४०२ को भी योगोद्वहन करना पड़ता है । तद्वत् श्रावक योग्य सूत्रोंका उद्यापन तप करके मालारोपण करना योग्य है । उपधान तपो विधिवद्विधाय, धन्यो निधाय निजकण्ठे । घापि सूत्रमा धापि विश्रियं श्रयति ॥ १ ॥ धन्य हैं वे पुरुष कि जो उपधान तप विधि पूर्वक करके दोनों प्रकार की सूत्र माला ( १०८ तार और इतने ही रेशमी फूल वगैरह बनाई हुई, अपने कंठ में धारण करके दोनों प्रकार की मोक्षश्री को प्राप्त करते हैं। मुक्तिनीवरमाला, सुकृतजलाकर्षणे घटीमाला । साचादिव गुणमाला, मालापरिधीयते धन्यः ॥ २ ॥ मुक्तिरूपिणी कन्या को धरने की वर माला, सुकृत जलको खे चने की अरघट्ट माला, साक्षात् गुणमाला, प्रत्यक्ष गुणमाला सरीखी माला धन्य पुरुषों द्वारा पहनी जाती है। इस प्रकार शुक्ल पंचमी वगैरह तप के भी उसके उपवासों की संख्या के प्रमाण में नाणा, कचोलियां, नारियल, तथा मोदकादिक एवं नाना प्रकारकी लाहाणी करके यथाश्रुत संप्रदाय के उद्यापन करना । • "तीर्थ प्रभावना" तीर्थ प्रभावना निमित्त कमसे कम प्रति वर्ष श्रीगुरु प्रवेश महोत्सव प्रभावनादि एक दफा अवश्यकरना । गुरुप्रवेश महोत्सव में सर्ज प्रकारके प्रौढ़ आडम्बर से चतुर्विध श्री संघ को आचार्यादिक के सन्मुख ना | गुरु आदि का एवं श्री संघका सत्कार यथाशक्ति करना । इसलिये कहा है किनसणेण, पडिपुच्छणेण साहुखं । अभिगमण वंद चिर संचिपि कम्प', खणेण विरलत्तण मुवेइ ॥ १ ॥ साधुके सामने जाने से, बंदन करने से सुखसाता पूछने से चरिकाल के संचित कर्म भी क्षणवारमें दूर जाते हैं। पेथड़शाह ने तपगच्छ के पूज्य श्री धर्मघोषसूरि के प्रवेश महोत्सव में बहत्तर हजार रुपयोंका खर्च किया था । ऐसे वैराग्यवान आचार्योंका प्रवेश महोत्सव करना उचित नहीं यह न समझना चाहिए। क्योंकि आगम को आश्रय करके बिचार किया जाय तो गुरु आदिका प्रवेश महोत्सव करना कहा है। साधुकी प्रतिमा अधिकार में व्यवहार भाष्य में कहा है कि तीर उम्भाम नियोग, दरिसणं सन्नि साहु मध्याहे । दण्डि भो असई, सावग संघोव सक्कारं ॥ १ ॥ प्रतिमाधारी 'साधु प्रतिमा पूरी होने से ( प्रतिमा याने तप अभिग्रह विशेष ) जो समीप में गांव हो वहां जाकर वहां रहे हुए साधुओं से परिचित होवे । वहां पर साधु या श्रात्रक जो मिले उसके साथ आचार्य को सन्देश कहलावे कि मेरी प्रतिमा अब पूरी हुई हैं। तब उस नगर या गांवके राजाको आचार्य बिदित करे कि
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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