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________________ manoranormanniwanahanwwanmanna श्राद्धविधि प्रकरण ४०१ मंत्री वस्तुपाल की साड़े बारह दफा संघ सहित शत्रुजय की तीर्थयात्रा हुई यह बात प्रसिद्ध ही है। पुस्तकादिक में रहे हुए श्रृं तज्ञात का कर्पूर वासक्षेप डालने वगैरह से पूजन मात्र प्रति दिन करना । तथा प्रशस्त वस्त्रादिक से प्रत्येक मासकी शुक्ल पञ्चमी को विशेष पूजा करना योग्य है। कदाचित् ऐसा न बन सके तो कमसे कम प्रति बर्ष एक दफा तो अवश्यमेव ज्ञान भक्ति करना जिसका बिधि आगे बतलाया जायगा। "उद्यापन" नवकार के तपका आवश्यक सूत्र, उपदेशमाला, उत्तराध्ययनादि ज्ञान, दर्शन चारित्रके विविध तप सम्बन्धी उद्यापन कमसे कम प्रति वर्ष अवश्यमेव करना चाहिए । इसलिये कहा है कि । लक्ष्मीः कृतार्थी सफलं तपोपि, ध्यानं सदोच्च नबोधि लाभः । जिनस्थ भक्तिर्जिन शासमश्रीः,गुणाः स्युरुयापनतो नराणां ॥१॥ लक्ष्मी कृतार्थ होती है, तप भी सफल होता है, सदैव श्रेष्ठ ध्यान होता है, दूसरे लोगोंको बोधिबीज की प्राप्ति होती है, जिनराज की भक्ति और जिन शासन की प्रभावना होती है। उद्यापन करने से मनुष्य को इतने लाभ होते हैं। उद्यापन यत्तपसा समर्थने, तच्चत्यमौली कलशाऽधिरोपण। ___ फलोपरोपो क्षतपात्र मस्तके, तांबूलदान कृतभोजनो परि ॥२॥ जिस तप की समाप्ति होने से उद्यापन करना है वह मन्दिर पर कलश चढानेके समान है, अक्षत पात्र के मस्तक पर फल चढाने रूप और भोजन किये बाद ताल देने समान है। सुना जाता है कि विधि पूर्वक नवकार एक लाख या करोड़ जपनेपूर्वक मन्दिर में स्नात्र, महोत्सव, सार्मिक वात्सल्य, संघपूजा वगैरह प्रौढ आडम्बर से लाख या करोड अक्षत, अडसट सुवर्ण की तथा चांदी की प्यालियां, पट्टी, लेखनी, मणी मोती प्रवाल तथा नगद द्रव्य, नारियल वगैरह अनेक फल विविध जातिके पक्वान, धान्य, खादिम, स्वादिम, कपडे प्रमुख रखनेसे नवकार का उपंधान वहनादि विधि पूर्वक माला रोपण होता है। ___एवं आवश्यक के तमाम सूत्रोंका उपधान बहन करने से प्रतिक्रमण करना कल्पता है, इस प्रकार उपदेशमाला की ५४४ गाथाके प्रमाणसे ५४४ नारियल, लड्डू, कचौली बगैरह विविध प्रकार की वस्तुएं उपदेशमाता ग्रन्थ के पास रखने से उपदेश माला प्रकरण पढना, उद्यापन समझना। तथा समकित शुद्धि करने के लिये ६७ लड्डुओं में सुवर्ण मोहरें, चांदी का नाणा डाल कर उसकी लाहणी करे वह दर्शन मोदक गिना जाता है। -ईविहि नवकार वगैरह सूत्रोंके यथाशक्ति विधि पूर्वक उपधान तप किये बिना उनका पढ़ना गिनना वगैरह नहीं कल्पता । उनकी आराधना के लिये श्रावकोंको अवश्य उपधान तप करना चाहिये । साधुओं ५१
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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