SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८ श्राद्धविधि प्रकरण पर श्री नेमिनाथ स्वामी की मूर्ति के समान असंख्यात काल पर्यंत भी रह सकती है । प्रभात समय होने पर राजा, आचार्य, मंत्री, सामन्त वगैरह बहुतसे मनुष्य परस्पर अपने स्वप्न सम्बन्धी बातें करने लगे। तदनन्तर सर्व नन प्रमुदित होकर अविवाद पूर्वक तीर्थ के सन्मुख चलने लगे। कुछ दूर जानेपर रास्ते में ही विमलाचल तीर्थ को देखकर संघ को अत्यन्त हर्ष हुआ। तीर्थ पर चढ कर राजा आदि भक्त जन दर्शन पूजा करके अपने अभिग्रह को पूर्ण करने लगे। एवं हर्ष से रोमांचित हो अपने आत्मा को पुण्य रूप अमृत से पूर्ण पुष्ट करने लगे। स्नात्रपूजा, ध्वजपूजा, आदि कर्तव्य क्रिया करके माला प्रमुख पहन कर सर्व मनुष्य प्रमुदित हुए । इस प्रकार अपने अभिग्रह को पूर्ण कर वहां से मूल शत्रुजय तीथ की तरफ यात्रार्थ संघ ने प्रस्थान किया । परन्तु राजा भगवान् के गुण रूप चूर्ण से मानों वशीभूत हुआ हो त्यों वारंवार फिर वहीं जाकर मूलनायक भगवान् को नमन वन्दन करता है। ऐसा करते हुए अपनी आत्मा को सातों नरक में पड़ने से रोकने के लिये ही प्रवृ. सिमान हुआ हो त्यों राजा सातवार तीर्थपर से उतर कर सातवीं वार फिर से तीर्थ पर चढ़ा। उस वक्त सिंह नामक मन्त्री पूछने हगा कि, हे राजेन्द्र ! आप इस प्रकार बार बार उतर कर फिर क्यों चढते हो ? रोजा ने जवाब दिया कि जैसे माताको बालक नहीं छोड़ सकता वैसेही इस तीर्थ को भी छोड़ने के लिये मैं असमर्थ हूं। अतः यहां ही नवीन नगर बसाकर रहने का मेरा विचार है क्योंकि निधान के समान इस पवित्र स्थान को प्राप्त करके मैं किस तरह छोडूं? -- . : :: :: ... · अपने स्वामी की आशा को. कौन विवक्षण और विवेकी पुरुष लोप कर सकता है ? इसलिए उस मन्त्री ने राजा की आज्ञा से उसी पर्वत के समीप वास्तुक शास्त्र की विधि पूर्वक एक नगर बसाया। इस नगर में जो निवास करेगा उससे किसी प्रकार का कर न लिया जायगा ऐसी आशा होने से कितने एक लोभ से, कितने एक तीर्थ की भक्ति से, कितने एक सहज स्वभावसे ही उस संघ के मनुष्य एवं अन्य भी बहुत से वहां आकर रहने लगे। पास में ही नवीन विमलाबल तीर्थ होने के कारण और निर्मल परिणाम वालों का ही अधिक भाग वहां आकर निकास करने के कारण उस नगरका नाम भी विमलापुर सार्थक हुवा। नई द्वारामती नगरी बसाकर जैसे श्रीकृष्ण वासुदेव रहे थे वैसे ही बड़ी राजरिद्धि सहित एवं श्री जिनेश्वर भगवान् का धर्मध्यान करते हुये वह राजा भी सुख से वहां निवास करने लगा। मीठे स्वर का बोलनेवाला एक शुक (तोता) राजाहंस के समान उस जितारी राजा को परमानन्दकारी क्रीड़ा का स्थानरूप प्राप्त हुवा। जब २ राजा जिन मन्दिर में जाकर अर्हत् दर्शन ध्यान में निमग्न होता था तब तब उस शुकराज के मीठे वचन सुनने में उसका मन लगता था। जिस प्रकार चित्र पर धूम्र लगनेसे उसपर कालिमा छा जाती है उसी प्रकार उसके शुभ ध्यान में उस पोपट के मिष्ट वचनों पर प्रीति होने के कारण मलीनंता लग जाती थी। इसी तरह कितनाक समय व्यतीत होने पर राजाने अन्त समय जिन मंदिर के समीप अनशन धारण किया । क्योंकि ऐसे विवेकी पुरुष अन्तिम अवस्था में समाधि मरण की ही चाहना रखते हैं । समय को जानने वाली और धैर्यवती वेसी और सारसी दोनों रानियां उस समय राजाको निर्यामना ( शुभध्यान ) कराती हुई नवकार मंत्र श्रवण कराना आदि कृत्य कर रही हैं, ठीक उसी समय पर वह तोता उसी जिन मन्दिर के शिखर पर चढ़कर मिष्ट
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy