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________________ श्राद्धविधि प्रकरण २७ 1 सकता ? ऐसा कहकर श्री संघ के साथ चतुरंगिनी सेना लेकर राजा यात्रा के मार्ग में चलने लगा । मानों कम रूप शत्रु को ही हनन करने को जाता हो। इस प्रकार बड़ी शीघ्र गति से चलता हुआ राजा कितने एक दिनों में काश्मीर देश की एक अटवी में जा पहुंचा। क्षुधा, तृषा, पैरों से चलना, एवं मार्ग में चलने के परि श्रम के कारण राजा रानी अत्यन्त आकुल व्याकुल होने लगे । उस वक्त सिंह नामक विचक्षण मन्त्रीश्वर finातुर होकर गुरु महाराज के पास आकर कहने लगा कि महाराज ! राजा को किसी भी प्रकार से सम झाइये, यदि धर्म के कार्य में समझपूर्वक कार्य न करेंगे और एकान्त आग्रह किया जायगा तो इसके परि णाम में जैनशासन की उलटी निंदा होगी। ऐसा बोलता हुआ मन्त्री वहां से राजा के पास आकर कहने लगा कि, हे राजन् ! लाभालाभ का तो विचार करो ! सहसात्कार से जो काम अविचार से किया जाता है प्रायः वह अप्रमाण ही होता है । उत्सर्ग में भी अपवाद मार्ग सेवन करना पडता है और इसीलिये "सहस्लागारेणं” का आगार (पाठ) सिद्धांतकारों ने बतलाया हुआ है । मन्त्री के पूर्वोक्त वचन सुनकर शरीर से अतिशय आकुलता को प्राप्त हुआ है तथापि मन से सर्वथा स्वकार्य में उत्साही राजा गुरु महाराज के समीप बोलने लगा, है प्रभो ! असमर्थ परिणामवंत को ही ऐसा उपदेश देना चाहिए। मैं तो अपने बोले हुए वचन को पालने में सचमुच ही शूरवीर हूं। यदि कदाचित् मैं प्राण से रहित भी हो जाऊं तथापि मेरी प्रतिज्ञाः तो निश्चय ही अभंग रहेगी। अपने पति का उत्साह बढ़ाने के लिये वे वीर पत्नियां भी वैसे ही उत्साह वर्धक वचन वोलने लगीं । राजा रानी के उत्साहवर्धक वचन सुनकर संघ के मनुष्य आश्चर्य में निमग्न हुये । और एक दूसरे से बोलने लगे कि, देखो कैसा आश्चर्य है कि राजा ऐसे अवसर पर भी धर्म में एकाग्र चित्त है । अहो ! धन्य है ऐसे सात्विक पुरुषों को ! सब मनुष्य इस प्रकार राजा की प्रशंसा करने लगे । अब क्या होगा या क्या करना चाहिये ? इस प्रकार की गहरी आलोचना में आकुल हृदय वाला सिंह नामक मन्त्री चिन्ता नमन हो रात्रि के समय तंबू में सो रहा था उस समय विमलाचल तीर्थ का अधिष्ठायक गोमुख नामा यक्ष स्वप्न में प्रकट होकर कहने लगा कि "हे मन्त्रीश्वर ! तूं किसलिये चिंता करता है ? जितारी राजा के धैर्य से यश होकर मैं प्रसन्नता पूर्वक विमलाचल तीर्थ को यहां ही समीपवर्ती प्रदेश में लाऊंगा, अतः तूं इस चिन्ता को दूर कर | मैं कल प्रभात के समय विमलाचल तीर्थ के सन्मुख चलते हुए श्री समस्त संघ को विमलाचल तीर्थ की यात्रा कराऊंगा । जिससे सबका अभिग्रह पूर्ण हो सकेगा । उसका इस प्रकार हर्षदायक वचन सुनकर मन्त्री यक्षराज को प्रणाम पूर्वक कहने लगा कि “हे शाशनरक्षक ! इस समय आकर आपने जैसे मुझे स्वप्न में आनन्द कारक वचन कहे वैसे ही इस संघ में गुरु प्रमुख अन्य भी कितने एक लोगों को स्वप्न देकर ऐसे ही हर्षदायक वचन सुनाओ कि जिस से संपूर्ण लोगों को निश्चय हो जाय" । मंत्री के कथनानुसार गोमुस्वयक्ष ने भी उसी प्रकार श्री संघ में बहुत से मनुष्यों को स्वप्नांतर्गत वही अधिकार विदित किया । तदनन्तर दूसरे दिन प्रभात समय ही उसने उस महा भयंकर अटवी में एक बड़े पर्वत पर कृत्रिम विमलाचल तीर्थ की रचना की । देवता को अपनी दिव्य शक्तिके द्वारा यह सब कुछ करना असंभवित न था । देवता की वैक्रियशक्ति से रवि वस्तु मात्र पंद्रह दिन ही रह सकती है। परन्तु, औदारिक परिणाम से परिणत हो तो गिरनार तीथ
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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