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________________ श्राद्धविधि प्रकरण २४ क्दन उच्चारण करने लगा। इससे राजा का ध्यान इस तोते पर ही लग गया। उसी समय राजाका आयुष्य भी परिपूर्ण होने से तोते के वचनों पर राग होने के कारण उसे तोते की जातिमें ही जन्म लेना पड़े इस प्रकार का कर्म बन्धन किया। अहा हा !! भवितव्यता केसी बलवान है ! “अन्त समयमें जैसी मंति होती है वैसी ही इस आत्मा की गति होती है" ऐसी जो पण्डित पुरुषों की उक्ति है मानो वही इस शुक्रवचन की रागिष्टता से सिद्ध होती है। तोता, मैना, हंस, और कुत्ता वगैरह की क्रीडाओं को तीर्थंकरों ने सर्वथा अनर्थदण्डतया बनलाई हैं यह बिल्कुल सत्य है ! अन्यथा ऐसे सम्यकत्ववंत राजा को ऐसी नीच गति क्यों प्राप्त हो । इस भांतिका इस राजा को धर्म का योग होते हुए भी जब उसकी ऐसी दुष्ट गति हुई तब ही तो ऐसे अनेकांतिक मार्ग से यह सिद्ध होता है कि जीव की गति की अतिशय विचित्रता ही है । नरक और तिर्यंच इन दो गतियों का प्राणी ने जिस दुष्ट कर्म से बन्ध किया हो उस कर्म का क्षय विमलाचल तीर्थ की यात्रा से ही हो जाता है। परन्तु इसमें विशेष इतना हो विचार करने योग्य है कि फिर भी यदि तिर्यंच गतिका बन्ध पड़ गया तो वह भोगने से भी क्षय किया जा सकता है परन्तु जो बन्ध पड़ा वह बिना भोगे नहीं छूट सकता। यहां इतना जरूर स्मरण रखना चाहिये कि तीर्थ की भक्ति सेवा से तो दुर्गति नहीं किंतु शुभ गति हो होती है। ऐसी इस तीर्थ की महिमा होने पर भी उस जितारी राजा की तिर्यंच गति रूप दुर्गति हुई इसमें कुछ तीर्थ के महिमा की हानि नहीं होती। क्योंकि यह तो प्रमादाचरण का लक्षण ही है कि शीघ्र दुर्गति प्रप्त हो। जैसे कि किसी रोगी को वैद्य ने योग्य औषधि से निरोगी किया तथापि यदि वह कुपथ्यादिक का सेवन करे तो फिर से रोगी हो जाय इसमें बैद्य का कुछ दोष नहीं दोष तो कुपथ्य का हो है, वैसे ही इस राजा की भी प्रमादवश से दुर्गति हुई । यद्यपि पूर्वभवकृत कर्मयोग से उत्पन्न हुए दुर्ध्यान से कदाचित् वह शुकरूप तिर्यंच हुवा तथापि सर्वज्ञ का वचन ऐसा है कि एक बार भी सम्यक्त्व प्राप्ति हुई है वह सर्वोत्कृष्ट सफल है इसलिए उसका फल उसे मिले बिना न रहेगा"। .. .. . .. ...... ......। .. तदनंतर जितारी राजा को मृत्यु सम्बन्धी सर्व संस्कार कराने के पश्चात् उसकी दोनों राणियों ने दीक्षा अंगीकार करके तपश्चर्या करना शुरू की। विशुद्ध संयम पालकर सौधर्म नामा प्रथम देवलोक में दोनों देविष हुई। देवलोक में दोनों देवियों को अवधिज्ञान से मालूम हुवा कि उनके पूर्वभव का पति तिर्यंच गति में उत्पन्न हुवा है। इससे उन्होंने उस तोते के पास आकर उसे उपदेश दे प्रतिबोध किया। अन्त में उसी नवीन विमलाचल तीर्थ के जिनमंदिर के पास उन्होंने पूर्व के समान उसे अनशन कराया। जिसके प्रभाव से उन्हीं देवियों का पति वह तोता जितारी राजा को जीव प्रथम देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हुआ। उसने अपनी दोनों देवियों के देवलोक से च्यवन होने के पहले ही उसने किसी केवलज्ञानी से पूछा कि स्वामिन् ! मैं सुलभबोध्रि हूं या दुर्लभबोधि ? केवली ने कहा कि तूं सुलभषोधि है । उसने पूछा कि महाराज! मैं किस तरह सुलभबोधि हो सकूँगा ? महात्मा बोले कि इन तेरी देवियों के बीच में जो पहली देवी हंसी का जीव है, वह व्यब कर क्षितिप्रतिष्टित नगर में ऋतुध्वज राजा का मृगध्वज नामक पुत्र होगा और दूसरी देवी सारसी का जीव च्यव कर काश्मीर देश में नवीन विमलाचल तीर्थ के समीप ही तापसों के आश्रममें पूर्वभव में
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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