SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 381
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - श्राद्धविधि प्रकरण शयनासयनयोः काष्ठ । माचतुर्योगतो शुभं ॥ पंचादिकाष्ठ योगे तु । नाशः स्वस्य कुलस्य च ॥२॥ शय्या, तथा आसन, (चौकी, कुरसी, बैंच वगैरह ) के काष्ठमें चार भागसे जोड़ा हुआ हो तो अच्छा समझना ( चार जातिके ) पंचादि योग किया हुआ हो तो कुलका नाश करता है। पूज्योर्ध्वस्थोननार्दा हि । न चोत्तरापराशिराः॥ - नानुवशनपादांत । नागदंतः स्वयं पुमान् ॥३॥ पूजनीय से ऊपर, भीने पैरोंसे, उत्तर या पश्चिम दिशामें मस्तक करके, बंसरो के समान लम्बा ( पैरों तक वस्त्र ढक कर परन्तु नंगा) हाथोके दांतके समान वक्र, शयन न करे। देवता धाम्नि वल्मिके । भूरुहाणां तलेपि वा॥ तथा प्रतवने चैव । सुप्यानापि विदिक शिराः ॥४॥ • किसी भी देव मन्दिर में, बल्मिक पर--बम्बी पर, एवं वृक्षके तले, श्मशान भूमिमें तथा विदिशा में मस्तक करके शयन न करना चाहिये। निरोधभंगमाधाय । परिज्ञाय तदास्पदं ॥ विसृश्यनलमासन्न । कृत्वा द्वार नियंत्रणं ॥५॥ इष्टदेवनमस्कार । नाष्टऽपमृतिभीः शुचिः॥ रक्षामन्त्रपवित्रायां । शय्यां पृथुतामझषी ॥६॥ खुसंवृत्त परीधान । सर्वाहार विवर्जितः॥ बामपाश्वे तु कुर्वीत । निद्रा भद्राभिलाषुकः॥७॥ लघु शंका निवारण करके, लघु शंका करने का स्थान जान कर, विचार करके जलपात्र पासमें रख कर, द्वार बन्द करके, जिससे अपमृत्यु न हो ऐसे इष्टदेव को नमस्कार करके, पवित्र होकर, रक्षा मन्त्रसे पवित्र हो चौड़ी विशाल शय्यामें दृढ़तया वस्त्र ( कटि वस्त्र ) पहन कर सर्व प्रकार के आहार से रहित हो वाये अंगको दबा कर अपना कल्याण इच्छने वाले मनुष्य को निद्रा करनी चाहिये। क्रोधभीशोकमद्यस्त्री। भारयानाध्वकर्मभिः॥ परिक्लान्ते रतिसार । श्वासहिक्कादिरोगिभिः ॥८॥ वृद्धवालावलक्षीणैः । सृट् शूलक्षत बिव्हलैः॥ अजीर्णाप्रमुख कार्यो। दिवास्वापोपि कहिंचित् ॥ ६॥ क्रोधसे, शोकसे, भयसे, मदिरा से, स्त्रोसे, भारसे, वाहन से, मार्ग चलने वगैरह कार्य करने से, जो खेद पाया हुआ हो उसे, अतिसार, श्वास, हिकादिक रोगी पुरुष को, वृद्ध, बाल, वल रहित और जो क्षय रोगी हो उसे, तृषा, शूल, घायल जो क्षत वगैरह से विधुरित हो उसे और अजीर्ण रोग वालेको भी किसी समय दिनको सोना योग्य है। वातोपचयरौताभ्यां। रजन्याश्चाल्प भावतः॥ दिवास्वापः सुखी ग्रीष्ये। सोन्यदाश्लेष्मपित्तकृत् ॥१०॥ जिसे वायुकी वृद्धि हुई हो या ऋक्षता के कारण रातको कम निद्रा आती हो उसे दिनमें सोना योग्य है, इससे उसे उष्ण कालमें सुख होता है, परन्तु दूसरों को श्लेष्म और पित्त होता है।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy