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________________ श्राद्धविधि प्रकरण ३६६ धर्म सुननेवाले सभी मनुष्योंको सुनने मात्रले निश्चयसे हित नहीं होता, परन्तु उपकार की बुद्धिसे कथन क्रिया होनेके कारण वक्ताको तो एकान्त लाभ होता है। यह नवमी गाथाका अर्थ समाप्त हुआ । पायं प्रबंभ विरो। समए अप्पं करेइ तो निहं ॥ निदंवरमेथी तणु । असुइद्दोई विचितिजा ॥ १० ॥ इसलिये धर्म देशना किये बाद समय पर याने एक पहर रात्रि व्यतीत हुये बाद अर्ध रात्रि वगैरह के समय सानुकूल शयन स्थानमें जाकर विधि पूर्वक अल्प निद्रा करे। परन्तु मैथुनादि से विराम्र पाकर सोवे । जो गृहस्थ यावजीव ब्रह्मचर्य पालन करनेके लिये अशक्त हो उसे भी पर्व तिथि आदि बहुतसे दिन ब्रह्मचारी ही रहना चाहिये | नवीन यौवनावस्था हो तथापि ब्रह्मचर्य पालना महा लाभकारी है, इस लिये महाभारत में भी कहा है कि: एकराम्युषितस्यापि । या गतिर्ब्रह्मचारिणः ॥ नसा ऋतुसह । वक्तु ं शक्या युधिष्ठिर ॥ १ ॥ जो गति एक रात्रि ब्रह्मचर्य पालन करने वालेकी होती है है युधिष्ठिर ! वैसी एक हजार यज्ञ करने से भी नहीं कही जा सकती । ( इसलिये शील पालना योग्य है ) यहां पर निद्रा' यह पद विशेष है और अल्प यह विशेषण है। जो विशेषण सहित है उसमें विधि और निषेध इन दोनों विशेषणों का संक्रमण हुआ । इस न्याय से यहां पर अल्पत्व को विधेय करना; परन्तु निद्राको विधेय न करना । दर्शनावरणी कर्मके उदयसे जहां स्वतः सिद्धता से अप्राप्त अर्थ हो वहां शास्त्र ही अर्थवान होता है यह बात प्रथम ही कही गई है। जो अधिक निद्रालु होता है वह सचमुच ही दोनों भवके कृत्यों से भ्रष्ट होता है और उसे तस्कर, वैरी, धूर्त, दुर्जनादिकों से अकस्मात् दुःख भी आ पड़ता है एवं अल्प निद्रा वाला महिमान्त गिना जाता है । इस लिये कहा है - थोत्राहारो थोव भणियो । जो होइ थोव निद्दोभ ॥ थोवो हि वगरणो । तस्स हु देवाबि पणमन्ति ॥ १ ॥ कम आहार, कम बोलना, अल्प निद्रा, और जिसे कम उपधि उपकरण हों उससे देवता भी नमता हुआ रहता है। निद्रा करने का विधि नीति शास्त्र के अनुसार नीचे मुजब बतलाया है। " निद्रा विधि” खट्वा जीवा कुर्ला ह्रस्वां । भग्नकाष्ठां मलीमसां ॥ प्रतिपादाविवन्हि । दारुजातां च संत्यजेत् ॥ १॥ जिसमें अधिक खटमल हों, जो छोटी हो, जिसकी बही और पाये जिसमें अधिक पाये जोड़े हुये हों, जिसके पाये या बही जले हुये काष्ठ के हों चाहिये । ४७ टूटे हुये हों, जो मलीन हो, ऐसी चारपाई पर सोना न
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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