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________________ श्राद्धविधि प्रकरण ३७१ प्रत्याशक्त्त्यानवसरे । निद्रा नैव प्रशस्यते ॥ एषा सौख्यायुषी काल । रात्रिवद पणिहन्ति यत् ॥ ११ ।। निद्रामें अत्यन्त आसक्त होकर वे वखत निद्रा करना प्रशंसनीय नहीं है। असमय की निद्रा सुख और आयुष्य को काल रात्रिके समान हानि कारक है। प्राकशिरः शयने विद्या । धनलाभश्च दक्षिणे ॥ पश्चिमे प्रबला चिन्ता । मृत्युानिस्तथोत्तरे ॥ १२ ॥ ___ पूर्व दिशामें सिराना करके सोने से विद्या प्राप्त होती है, दक्षिण में सिराहना करने से धनका लाभ होता है। पश्चिम में सिराहना करने से चिन्ता होती है और उत्तर में सिराहाना करने से हानि, तथ, मृत्यु होती है। आगम में इस प्रकार का विधि है कि शयन करने से पहले चैत वन्दनादिक करके, देव गुरुको नमस्कार, नौवीहारादि प्रत्याख्यान, गंठसहि प्रत्याख्यान और समात व्रतोंको संक्षेप करने रूप देशावगाशिक व्रत अंगीकार करे और फिर सोवे । इसलिये श्रावकादि के कृत्यमें कहा है किःपाणीवह मूसा दत्त । मेहुणा दिण लाभणथ्थ दंडं च ॥ अंगीकय च मुन्तुं । सव्वं उवभोग परिभोगं ॥१॥ गिहमज्जं मुत्तु णं । दिशिगमणं मुतु पसगजुआई ॥ वयकाएहिं न करे । न कारवे गंठिसहिएण ॥२॥ जीव हिंसा, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, दिन में होने वाला लाभ, अनर्थदंड, जितना भोगोपभोग में परिमाण किया हो उसे छोड़ कर, घरमें रही हुई जो जो वस्तुयें हैं उन्हें मन बिना वचन, कायसेन करून कराऊं, और दिशामें गमन करने का, डांस, मच्छर, ज, इत्यादि जीवोंको वर्ज कर, दूसरे जीवोंको मारने का काया, बचन से न करूं और न कराऊं, तथा गंठ सहिके प्रत्याख्यान सहित वर्तना, इस प्रकार का देशावगा. शिक व्रत अंगीकार करना । यह बड़े मुनियों के समान महान फल दायक है, क्योंकि उसमें निःसंगता होती है, इसलिये विशेष फलकी इच्छा वाले मनुष्य को अंगीकृत ब्रतका निर्वाह करना चाहिये । अंगीकृत व्रतका निर्वाह करने में असमर्थ मनुष्य को, 'अण्णथ्य णा भोगेणं' इत्यादिक चार आगार खुले रहते हैं। इसलिये घरमें अग्नि लगने वगैरह के विकट संकट आपड़ने पर वह लिया हुआ नियम छोड़ने पर भी व्रतका भंग नहीं होता। ___ तथा चार शरण अंगीकार करना, सर्व जीव राशिको क्षमापना करना, अठारह पाप स्थानक को बुसराना, पापकी गर्दा करना, और सुकृतकी अनुमोदना करना चाहिये। जइमे हुज्ज पयानो । इमस्स देहस्स इगाइ रयणीए॥ आहारमुइहि देहं । सब्बं तिविहेण वोसरिअं ॥१॥ आजकी रात्रिमें इस देहका मुझे प्रमाद हो याने मृत्यु हो जाय तो मैं आहार उपधि ( धर्मोपकरण ) और देहको त्रिविध, त्रिविध करके वोसराता हूं।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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