SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६ - - श्राद्धविधि प्रकरण क्या ? कुछ लाभ नहीं। जिस मनुष्य ने इस पवित्र तीर्थ की यात्रा न की उसे जन्मे हुये को भी गर्भावास में ही समझना चाहिये, उस का जीना भी नहीं जीने के बराबर और विशेष जानकार होने पर भी उसे अनजान ही समझना चाहिये । दान, शील, तप, कष्टानुष्टान ये सर्व कष्टसाध्य है अतः बने उतने प्रमाण में करने योग्य हैं तथापि सुख पूर्वक सुसाध्य ऐसी इस तीर्थ की यात्रा तो आदरपूर्वक अवश्य ही करनी चाहिये। संसारी प्राणियों में वही मनुष्य प्रशंसनीय है और माननीय भी वही है कि जिसने पैदल चलकर सिद्धिक्षेत्र की छहरी पालते हुये सात यात्रा की हो । पूर्वाचयों ने भी कहा है कि छठेणं भवेणं अप्पाणएणं तु सजत्ताओ । जोकुणइसत्तुंजे सो तइयभवे लहइ सिद्धिं ॥९॥ जो शत्रुजय तीर्थ की योविहार सात छट्ठ करके सात बार यात्रा करता है वह प्राणी निश्चय से तीसरे भव में सिद्धि पद को प्राप्त करता है। . ... इस प्रकार भद्रकत्वादि गुणयुक्त उन गुरु की वाणी से जिस तरह वृष्टि पडने से काली मिट्टी द्रवित हो हो जाती है वैसे ही उस जितारी राजा का हृदय कोमल होगया। जगत् मित्र सदृश उन केवलज्ञानी गुरु ने अपनी अमोघ वाणी के द्वारा लघुकर्मी जितारी राजा को उस वक्त सम्यकत्व युक्त बना था। जितारी राजा के अंतःकरण पर गुरु की अमोघ वाणी का यहां तक शुभ परिणाम हुआ कि उसने तत्काल ही तीर्थयात्रा करने की अभिरुचि उत्पन्न होने से अपने प्रधानादिक को बुला कर आशा की कि हाल तुरन्त ही यात्रार्थ जाने का सामग्री तैयार करो। इतना ही नहीं बल्कि उसने इस प्रकार का अत्युप्र उत्कृष्ट अभिग्रह धारण किया कि जब तक उस तीर्थ की यात्रा पैदल चलकर न कर सकू वहां तक मुझे अन्न पानी का सर्वथा त्याग है। राजा की इस प्रकार की कठोर प्रतिज्ञा सुनकर हंसिनी तथा सारसी ने भी उसी वक्त कुछ ऐसी ही प्रतिक्षा ग्रहण का। "यथा राजा तथा प्रजा" इस न्याय के अनुसार प्रजावर्ग में से भी कितने एक मनुष्यों ने कुछ वैसी ही प्रकारांतर की प्रतिज्ञा धारण की। ऐसा क्या कारण बना कि, जिससे कुछ भी लम्बा विचार किये बिना राजा ने ऐसा अत्यन्त कठोर अभिग्रह धारण किया! अहो! यह तो महा खेदकारक वार्ता बनी है कि, वह सिद्धावल तीर्थ कहां रहा ? और इतना दूर होनेपर भी ऐसा अभिग्रह महाराज ने क्यों धारण किया ? प्रधानादिक पूर्वोक्त प्रकार से खेद पूर्वक सोच करने लगे। जब मन्त्री सामन्त इस प्रकार खेद कर रहे थे तब गुरु महराज बोले कि जो जो अभिग्रह ग्रहण करना वह पूर्वापर विचार करके ही करना योग्य है। विचार किये बिना कार्य करते हुए पीछे से बड़ा पश्चात्ताप करना पड़ता है और उस कार्य में लाभ की प्राप्ति तो दूर रही परन्तु उससे उलटा नुकसान ही भोगना पड़ता है । यह सुनकर अतिशय उत्साही राजा बोलने लगा कि हे भगवन् ! अभि. ग्रह धारण करने के पहिले ही मुझे विचार करना चाहिए था। परन्तु अब तो उस विषय में जो विचार करना है सो व्यर्थ है । पानी पीने बाद जाति पूछना या मस्तक मुंडन कराने बाद तिथी, वार, नक्षत्र, पूछना यह सब कुछ व्यथ ही है। अब तो जो हुआ सो हुआ। मैं पश्चात्ताप बिना ही इस अभिग्रह का गुरु महाराज के वरण पसाय से निर्वाह करूंगा । यद्यपि सूर्य का सारथी पग रहित है तथापि क्या वह आकाश का अन्त नहीं पा
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy