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________________ श्राद्धविधि प्रकरण ___ गुरू-बृहस्पति का जो मीन लग्न है वह स्वगृहात्-पिताका घर है, यदि वहां पर शुक्र आवे तो उसे उच्च कहा जाता है। (उच्चपद देता है ) वैसे ही यदि कोई महान् बुद्धिवाले पुरुषोंके घर आवे तो उसे वे मान बड़ाई देते हैं। इसलिये जब तक यह जागृत हो तब तक मैं अपने भूतोंके समुदाय को बुला लाऊं, फिर यथोचित करूंगा। यह विचार कर वह राक्षस जैसे नौकरोंको राजाके पास ले आवे वैसे ही बहुतसे भूतोंके समुदायको लेकर कुमारके पास आया। जैसे कोई लड़की की शादी करके निश्चित होकर सोता है वैसे ही निश्चिततया सोते हुये कुमारको देख राक्षस तिरस्कार युक्त बोलने लगा कि अरे ! मर्यादा रहित निर्बुद्धि ! अरे निर्भय निर्लज! तू शीघ्रही इस मेरे महलसे बाहर निकल जा अन्यथा मेरे साथ युद्ध कर! राक्षसके बोलसे और भूतोंके कलकलाहट शब्दसे कुमार तत्काल ही जाग उठा; और निद्रासे उठनेमें आलसी मनुष्य के समान बोलने लगा कि अरे राक्षसेंद्र ! भूखेको भोजनके अन्तराय समान मुझ निद्रालु परदेशी की निद्रामें क्यों अन्तराय किया ? इसलिये कहा हैं कि धर्मनिंदी पंक्तिभेदी, निद्राच्छेदी निरर्थकं । कथाभंगी स्थापाकी, पंचतेऽत्यंत पापिणः॥ धर्मनिन्दक, पंक्तिभेदक, निरर्थक निद्राच्छेदक, कथाभंजक, वृथापाचक, ये पांचों जने महा पापी गिने जाते हैं। इसलिये ताजा घो पानीमें धोकर मेरे पैरोंके तलियों पर मर्दन कर और ठंढे 'जलसे धोकर मेरे पैरोंको दग कि जिससे मुझे फिरसे निद्रा आ जाय। राक्षस विचारने लगा कि, देवेन्द्र के भी हृदय को कंपानेवाला इसका चरित्र तो विचित्र ही आश्चर्य कारी मालूम होता है। कितने आश्चर्य की बात है कि केसरी सिंहकी सवारी करनेके समान यह मुझसे अपने पैरोंके तलिये मसलवाने की इच्छा रखता है । इसकी कितनी निर्भयता! कितनी साहसिकता, और इन्द्र के समान कितनी आश्चर्यकारी विक्रमता है। अथवा जगतके उत्तम प्राणियोंमें शिरोमणि तुल्य पुण्यशाली अतिथिका कथन एक दफा करू तो सही। यह विचार कर उसके कथनानुसार राक्षस कुमारके पैरोंके तलिये क्षणवार अपने कोमल हाथोंसे मसलने लगा। यह देख वह पुण्यात्मा रत्नसार कुमार उठकर कहने लगा कि सब कुछ सहन करनेवाले हे राक्षसराज! मैंने जो अज्ञानतया मनुष्यमात्र ने तेरी अवज्ञा की सो अपराध क्षमा करना। मैं तेरी शक्तिसे तुझपर संतुष्ट हुआ हूं। इसलिये हे राक्षस! तेरी जो इच्छा हो सो मांग ले। तेरा जो दुःसाध्य कार्य हो सो भी तू मेरे प्रभावसे साध्य कर सकेगा। ____ आश्चर्य चकित हो राक्षस विचार करने लगा कि अहो कैसा आश्चर्य हैं और यह कितना विपरीत कार्य है कि मैं देव हूँ मुझ पर मनुष्य तुष्टमान हुआ ? इतना आश्चर्य कि यह मनुष्य मात्र होकर भी मुझ देवता के दुःसाध्य कार्यको सिद्ध कर देनेकी इच्छा रखता है ? यह मनुष्य होकर देवता को क्या दे सकता है ? अथवा मुझ देवता को मनुष्य के पास मांगने की क्या चीज है ? तथापि मैं इसके पास कुछ याचना जरूर करूगा। यह धारणा करके वह राक्षस स्पष्ट वाणीसे बोलने लगा कि जो दूसरे की याचना पूर्ण करता है
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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