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________________ श्राद्धविधि प्रकरण यद्यपि वह तापस शान्त प्रकृति वाला था तथापि असत्यारोपण मृत्युसे उसे अत्यन्त क्रोध उत्पन्न हुआ। इससे वह मृत्यु पा कर एक राक्षसतया उत्पन्न हुआ। क्योंकि वैसी अवस्था में मृत्यु पाने वाले की प्रायः वैसी ही गति होती है। अब उस निर्दयी राक्षसने तत्काल ही एकले राजाको जानसे मार डाला। बिना विचार किये कार्यका ऐसा ही फल होता है। उसने नगरके सब लोगोंको नगरसे बाहिर भगा दिया। जो मनुष्य राजमहल में जाता है उसे तुरन्त ही मार डालता है। इसी कारण तेरे हितकी इच्छासे मैं तुझे यमराज के मन्दिर समान नगरमें जानेसे रोकती हूं। यह बचन सुन कर कुमार मैनाकी बचन चतुराई से विस्मित हुआ। कुमारको किसी राक्षस वाक्षसका भय न था इसलिये मैनाकी कौतुकपूर्ण बात सुन कर नगरमें प्रवेश करनेकी उसे प्रत्युत उत्सुकता हुई। ___ कौतुकसे और राक्षसका पराक्रम देखने के लिए निर्भय हो कर जिस प्रकार कोई शूर वीर संग्रामभूमि में प्रवेश करता है, वैसे ही कुमारने तत्काल नगरमें प्रवेश किया। उस नगरमें किसी जगह मलयाचल पर्वत के समान पड़े हुए बावने चन्दनके ढेर और किसी जगह अपरिमित सुवर्ण वगैरह पड़ा देखा। बाजारमें तमाम दुकानें, धन धान्य, वस्त्र क्रयाणे वगैरह से परिपूर्ण देखनेमे आई', जवाहरात की दूकानोंमें अगणित जवाहरात पड़ा था, रत्नसार कुमार श्री देवीके आवास समान धन सम्पत्ति से परिपूर्ण शहरको अवलोकन करता हुआ देव विमानके समान राज्य महलकी तरफ जा निकला राजमहल में वह वहां पर जा पहुंचा, कि जहां पर राजाका शयनागार था। (सोनेका स्थान ) वहां पर उसने एक मणिमय रमणीय पलंग उस निर्जन नगरमें फिरते हुए कुमारको कुछ परिश्रम लगा था इसलिये वह सिंहके समान निर्भीक हो उस राजपलंग पर सो रहा। जिस प्रकार केसरी सिंहके पीछे महाव्याघ्र ( कोई बड़ा शिकारी) आता है, वैसे ही उसके पीछे वहां पर वह राक्षस आ पहुंचा। वहां पर मनुष्यके पदचिन्ह देख कर वह क्रोधायमान हुआ। फिर सुख निद्रामें सोये हुए कुमारको देखकर वह विचार करने लगा कि जहां पर आनेके लिए कोई विचार तक नहीं कर सकता ऐसे इस स्थानमें आ कर यह सुखनिद्रा में निर्भय हो कौन सो रहा है ? क्या आश्चय है कि यह मनुष्य मृत्युकी भी पर्वा न करके निश्चित हो सो रहा है। अब इस अपने दुश्मनको कैसी मारसे मारू ? क्या नखोंसे चीर डालू? या इसका मस्तक फोड़ डालू या जिस तरह चूर्ण पीसते हैं वैसे गदा द्वारा पीस डालू। या जिस तरह महादेवने कामदेवको भस्म कर डाला उस तरह आंखोंमेंसे निकलते हुए जाज्वल्यमान अग्नि द्वारा इसे जला डालू! या जिस तरह आकाशमें गेंद उछालते हैं वैसे ही इसे आकाशमें फेंक ? या इस पलंग सहित उठा कर इसे अन्तिम स्वयम्भू रमण समुद्रमें फेक दूं? ये विचार करते हुए उसने अन्तमें सोचा कि, यह इस समय मेरे घर पर आ कर सो रहा है इसलिये इसे मारना उचित नहीं क्योंकि यदि शत्रु भी घर पर आया हुआ हो तो उसे मान देना योग्य है तब फिर इसे किस तरह मारा जाय। कहा है किभागतस्य निजगेहमप्यरे, गौरिवं विदघते महाधियः । पीनमात्म सदनंसपेयुषे भार्गबाय गुरूचता ददौ॥
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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