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________________ ३४४ श्राद्धविधि प्रकरण वह प्राणी तीनों लोकमें दुर्लभ है। मांगने की इच्छा होने पर भी मैं किस तरह मांग सकता हूं? मैं कुछ मागूमनमें ऐसा विचार धारण करने से भी सब गुण नष्ट हो जाते हैं और मुझे दो ऐसा वचन बोलते हुये मानो भयसे ही शरीरीमें से तमाम सद्गुण दूर भाग जाते हैं। दोनों प्रकार के (एक बाण और दूसरा याचक ) मार्गण दूसरे को पीड़ा कारक होते हैं परन्तु आश्चर्य यह है कि एक बाण तो शरीर में लगने से ही पीड़ा कर सकता है। परन्तु दूसरा बाण याचक तो देखने मात्र से भी पीड़ा कारी हो जाता है। कहा है कि हलकी में हलकी धूल गिनी जाती है, उससे भी हलका तृण, तृणसे हलकी आककी रुई उससे हलका पवन, पवन से हलका याचक, और याचकसे भी हलका याचक वंचक-समर्थ हो कर ना कहने वाला गिना जाता है। और भी कहा है किपर पथ्थणा पवन्नं । मा जणणि जोसु एरिसं पुत्त॥ माउ अरेवि धरिजसु पथियम भंगोक प्रोजेण ॥२॥ जो दूसरे के पास जाकर याचना करे, हे माता ! तू ऐसे पुत्रको जन्म न देना और प्रार्थना भंग करने वाले को तो कुक्षिमें भी धारण न करना । इसलिये हे उदार जनाधार ! रत्नसार कुमार ! यदि तू मेरी प्रार्थना भंग न करे तो मैं तेरे पास कुछ याचना करू । कुमार बोला कि, हे राक्षसेन्द्र ! यदि वित्तले, चित्तसे, वचनसे पराक्रम से, उद्यम से, शरीर देनेसे, प्राण देनेसे, इत्यादि कारणों से तेरा कार्य किया जा सकता होगा तो सचमुच ही मैं अवश्य कर दूंगा । आदर पूर्वक राक्षस कहने लगा कि, हे महाभाग्यशाली! यदि सचमुच ऐसा ही है तो तू इस नगरका राजा बन । सर्व प्रकारके गुणोंसे उत्कृष्ट तुझे मैं खुशीसे यह राज्य समर्पण करता हू अतः तू इस बड़े राज्यको ग्रहण कर और अपनी इच्छानुसार भोग! दैविक ऋद्धिके भोग, सेना, तथा अन्य भी जो तुझे आवश्यकता होगी सो मैं तेरे नौकरके समान वश होकर सब कुछ अर्पण करूंगा। मेरे आदि देवताओं के सहाय से सारे जगत में तेरा इन्द्रके समान एक छत्र साम्राज्य होगा। वहां पर साम्राज्य करते हुये इन्द्र के मित्रके सरीखी लक्ष्मी द्वारा स्वर्ग में भी अनर्गल अप्सराये तेरा निर्मल यश गान करेंगी। ___उसके ऐसे वचन सुन कर रत्नसार कुमार अपने मनमें चिन्ता करने लगा कि अहो आश्चर्य ! मेरे पुण्य के प्रभाव से यह देवता मुझे राज्य समर्पण करता है परन्तु मैंने तो प्रथम धर्मके समीप रहे हुये मुनि महाराज के पास पंचम अणुव्रत ग्रहण करते हुये राज्य करने का नियम किया है। और इस वक्त मैंने इस देवता के पास इसकी याचना पूर्ण करना मंजूर किया है कि जो तू कहेगा सो करूंगा। मैं तो इस समय नदी व्याघ्र न्यायके बीच आ पड़ा अब क्या किया जाय ? एक तरफ प्रार्थना भंग और दूसरी तरफ व्रत भंग, दोनोंके बीच मैं बड़े संकट में आ फसा । अथवा हे आर्य ! तू कुछ दूसरी प्रार्थना कर कि जिससे मेरे ब्रतको दूषण न लगे और तेरा कार्य भी सिद्ध हो सके। ऐसी दाक्षिण्यता किस कामकी कि जिसमें निज धर्म भंग होता हो, वह सुवर्ण किस कामका कि जिससे कान टूट जाय। देहके समान दाक्षिण्यता, लज्जा, लोभादिक सब कुछ बाह्य
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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