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________________ श्राद्धविधि प्रकरण याद न करता था। इस प्रकारके उत्कृष्ट सुख में एक क्षणके समान उसे वहां पर एक वर्ष व्यतीत हो गया। इसके बाद दैवयोग से वहां पर जो बनाव बना सो बतलाते हैं। एक समय रात्रिके धक्त कुमार अपनी सुखशय्या में सो रहा था, उस समय हाथमें तलवार लिये और मनोहर आकारको धारण करनेवाला कोई एक पुरुष महलमें आ घुसा। मकानके तमाम दरवाजे बंद थे तथापि न जाने वह मनुष्य किस प्रकार महलमें घुसा। यद्यपि वह मनुष्य प्रच्छन्न वृत्तिसे आया था तथापि दैवयोग से तुरन्त ही रत्नसार कुमार जाग उठा। क्योंकि विचक्षण पुरुषोंको स्वल्प ही निद्रा होती है। यह कौन, कहांसे, किस लिये मकानमें घुसता है ? जब कुमार यह विचार करता है, तब वह पुरुष क्रोधित हो उच्च स्वरसे बोलने लगा कि, अरे कुमार! यदि तू वीर पुरुष है तो मेरे साथ युद्ध करनेके लिये तैयार हो! धूर्त, गीदड़के समान तू वणिक मात्र होने पर व्यर्थ ही अपना वीरत्व प्रख्यात करता है, उसे सिंहके समान में किस तरह सहन करूंगा? यह बोलता हुआ वह तोतेका पिंजड़ा उतार कर सत्वर ही वहांसे चलता बना। यह देख क्रोधित हो म्यानसे तलवार खींच कर कुमार भी उसके पीछे चल पड़ा। वह मनुष्य आगे और कुमार पीछे इस तरह शीघ्रगति से वे दोनों जने नगरसे बाहर बहुत दूर तक निकल गये। जब रत्नसार ने दौड़ कर जीवित चोरके समान उसे पकड़ लिया तब वह कुमारके देखते हुये गरूड़के समान सत्वर आकाशमें उड़ गया। उसे आकाश मार्गमें कितनीक दूर तक कुमारने जाते हुये देखा, परन्तु वह क्षणवार में हो अदृश्य हो गया। इससे विस्मय प्राप्त कर कुमारने विचार किया कि, सचमुच यह कोई देव या, दानव' या विद्याधर होगा, परन्तु मेरा शत्रु है। ये चाहे जितना बलिष्ट हो तथापि मेरा क्या कर सकता है ? वह मेरा शुकरत्न ले गया यह मुझे अति दुःखदाई है। हे विचक्षण शिरोमणि शुकराज! मेरे कानोंको वचनामृत दान करनेवाले अब तेरे विना मुझे कौन ऐसा प्रिय मित्र मिलेगा ? इस प्रकार क्षणवार खेद करके कुमार विचार करने लगा अब ऐसा व्यर्थ पश्चात्ताप करनेसे क्या फायदा १ अब तो मुझे कोई ऐसा उद्यम करना चाहिये कि जिससे गतवस्तु वापिस मिल सके। उद्यम भी तभी सफल होता है कि जब उसमें एकाग्रता और दृढता हो। इसलिये जब तक मुझे वह तोता न मिलेगा तब तक मुझे यहांसे किसी प्रकार पीछे न लौटना चाहिये। यह निश्चय कर कुमार उसे वहां पर ही ढूढता हुआ फिरने लगा। उस चोरकी आश्रित दिशामें कुमारने बहुत कुछ खोज लगाई परन्तु उस चोर. का कहीं भी पता न लगा। तथापि वह कभी भी कहीं मिलेगा इस आशासे रत्नसार निराशित न होकर उसे उस जंगलमें ढूंढता फिरता है। कुमारको वह रात तथा अगला सारा दिन जंगलमें भटकते हुए व्यतीत हो गया। सन्ध्याके समय उसे एक समीपस्थ प्राकार परिशोभित नगर देखनेमें आया। वह नगर बड़ी भारी समृद्धिसे परिपूर्ण था, नगरके हर एक मकान पर सुन्दर ध्वजाय शोभ रही थीं। रत्नसार उस सुन्दर शहरको देखने के लिये चला । जब वह शहरके दरवाजे पर आया तब उसने द्वार रक्षिकाके समान दरवाजे पर एक मैनाको बैठी देखा। कुमारको दरवाजेमें प्रवेश करते समय वह मैना बोली कि हे कुमार इस नगरमें प्रवेश न करना, कुमारने पूछा नगरमें न जानेका क्या कारण ? मैना बोली-- "हे आर्य! मैं तेरे हितके लिये ही तुझे मना करती हूं, यदि
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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