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________________ श्राद्धविधि प्रकरण न देखकर ऊपर देखते रहना, बीचमें दूसरी ही बातें करना, टेढा मुंह करके बैठे रहमा, मौन धारण करना, देते हुये अधिक देर लगाना, ये नकारके छह प्रकार याने न देनेवाले के छह लक्षण हैं। दानके विशिष्ट गुणों सहित दान देनेमें पांच भूषण बतलाये हैं। आनंदाश्रुणि रोपांचो, बहुमानं प्रियवचः। किं चानुमोदनापात्र, दान भूषणपंचकं॥६॥ आनन्दके अश्रु आवं, रोमांच हो, बहुमान पूर्वक देनेकी रुची हो, प्रिय वचन बोले जाय, पात्र देखकर अहा! आज कैसा बडा लाभ हुवा ऐसी अनुमोदना करे! इन पांच लक्षणोंसे दिया हुवा दान शोभता है, और अधिक फल देता है । सुपात्र दान तथा परिग्रह परिमाण पर निम्न दृष्टान्त से विशेष प्रभाव पड़ेगा। "रत्नसारका दृष्टान्त” विशेष संपदा को रहनेके लिये स्थानरूप रत्नविशाला नाम नगरीमें संग्राम सिंह समान नामानुसार गुणवाला समर सिंह नामक राजा राज्य करतो था। वहांपर सर्व व्यापारादिक व्यवहार में निपुण और दरिद्रियों का दुःख दूर करनेवाला वसुसार नामक शेठ रहता था, और बसुंधरा नामकी उसकी स्त्री थी। उस शेठको जिस प्रकार सब रत्नोंमें एक हीरा ही सार होता है वैसे ही वहांके सर्व व्यापारी वर्गके पुत्रोंमें गुणसे अधिक रत्नसार नामक पुत्र था। वह एक समय अपने समान उमरवाले कुमारोंके साथ जंगलमें फिरने गया था। वहां अवधिज्ञान को धारण करनेवाले विनयन्धराचार्य को नमस्कार कर पूछने लगा कि स्वामिन् ! सुख किस तरह प्राप्त होता है ? आचार्य महारोजने उत्तर दिया कि, हे भद्र! जन्तोषका पोषण करनेसे इस लोकमें भी प्राणी सुखी होता है। उसके विना कहीं भी सुख प्राप्त नहीं किया जा सकता। वह सन्तोष भी देशवृत्ति और सर्ववृत्ति एवं दो प्रकारका है। उसमें भी गृहस्थोंको देशवृत्ति संतोष सुखके लिये होता है। परन्तु वह तब ही होता है कि जब परिग्रहका परिमाण किया हो। बहुतसे प्रकारकी इच्छा निवृत्तिसे गृहस्थ को देशले सन्तोष का पोषण होता है और सर्वथा सन्तोष का कोष साधुको ही होता है, क्योंकि उन्हें सर्व प्रकारकी वस्तुपर सन्तोष हो जानेसे इस लोकमें भी अनुत्तर विमान वासी देवताओं के सुखसे अधिक सुख मिलता है । इसलिये भगवती सूत्रमें कहा है किः "एगमास परिमारा सपणे वाणमंतराणं दो मास परिभाए भवण वईणं एवं ति चउ पंचच्छ सत्त अठ्ठ नव दस एकारस मास परिआए असुरकुमारा जोइसियाणं चन्दसूराणं सोहंम्मी साणाणं सणंकुमारमाहि दाणं बंगलंतगाणं सुक्कसहस्सादाराण प्राणयाइ चउरहं गेविज्जाणं जाव बारसमास परिपाए समणे अणुसरो ववाय अदेवाणं तेउ लेस वीईवय इत्ति इह तेजो लेश्या चित्तसुखलाभलक्षणा चारित्रस्य परिणतत्वे सतीति शेषः॥" एक महीनेके चारित्र पर्यायसे वानव्यंतरिक देवताके, दो महीनेके चारित्र पर्यायसे भुवनपति देवताओं के तीन मासके चारित्र पर्याय से असुरकुमार देवोंके चार मासके चारित्र पर्याय से, ज्योतिषी देवोंके पांच मास चारित्र्य पर्यायसे चन्द्रसूर्यके, छह मास चारित्र पर्यायसे सौधर्म ईशानके, सात मास चारित्र पर्याय से
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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