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________________ श्राद्धविधि प्रकरण ३१६ सनत्कुमार और माहेन्द्रके, आठ मास चारित्र पर्याय से ब्रह्म और लान्तक के, नय मास चारित्र पर्याय से शुक और सहस्रार के, दशमास चारित्र पर्याय से आनतादिक चार देवलोक के, ग्यारह मास चारित्र पर्याय से ग्रैवेयक के, बारह मास चारित्र पर्याय से अनुत्तर विमानके देवताओं के सुखसे अधिक सुख प्राप्त किया जाता है। यहां पर तेजोलेश्याका उल्लेख किया है परन्तु तेजो लेश्या शब्द द्वारा चारित्र्य के परिणमन से वित्तके सुखका लाभ होता है; यह समझना चाहिये । बड़े राज्य सम्बन्धी सुख और सर्व भोग के अगले सन्तोष धारण करनेवाले को सुख नहीं मिलता । सुभूम चक्रवर्ती और कौणिक राजा राज्यके सुखसे, मम्मण शेठ और हासा प्रसाहाका पति सुवर्णनन्दी लोभ से असंतोष द्वारा दुःखित ही रहे थे परन्तु वे सुखका लेश भी प्राप्त न कर सके। इसलिए शास्त्रमें कहा है कि: असन्तोषोवत: सौख्य, न शक्रस्य न चक्रिणः । जंतो सन्तोषभाजो य, दभयस्येव जायते ॥ सन्तोष धारण करनेवाले मनुष्यको जो निर्भयता का सुख प्राप्त होता है सो असन्तोषी चक्रवर्ती या इन्द्रको भी नहीं होता । ऊंचे ऊंचे विचारोंकी आशा रखनेसे मनुष्य दरिद्री गिना जाता है और नीचे विचार ( हमें क्या करना है ! हमें कुछ काम नहीं ऐसे विचार) करनेसे मनुष्यकी महिमा नहीं बढ़ती । जिससे सुख की प्राप्ति हो सके ऐसे सन्तोषके साधनके लिए धन धान्यादिक नव प्रकारके परिग्रह का अपनी इच्छानुसार परिमाण करना । यदि नियम पूर्वक थोड़ा ही धर्म किया हो तो वह अनन्त फलदायक होता है और बिना नियम साधन किया अधिक धर्म भी स्वल्प फल देता है । जैसे कि कुवेमें पानी आनेके लिये छोटीसी सुरंग होती है; इसलिये उसमें से जितना पानी निकाला जाय उतना निकालने पर भी वह अन्तमें अक्षय रहता है; परन्तु जिसमें अगाध पानी भरा हो ऐसे सरोवर में भी नीचेसे पानीके आगमन की सुरंग न होनेसे उसका पानी थोड़े ही दिनों में खुट जाता है। चाहे जैसा कष्ट आ पड़े तथापि नियममें सकता, परन्तु नियमरूप अर्गला रहित सुखके समय कदापि धर्म छूट जाता है याने छोड़ देनेका प्रसंग आता है । नियम पूर्वक धर्म साधन करने से धर्ममें दृढता प्राप्त होती है। यदि पशुओंके गलेमें रस्सी डाली हो तो ही वे स्थिर रहते हैं । धर्म में द्वढना, वृक्षमें फल, नदीमें जल, सुभटमें बल, दुष्ट पुरुषों में असत्य छल, जलमें ठंडक, और भोजन में घी जीवन हैं। जिससे अभीष्ट सुखकी प्राप्ति हो सके ऐसी धर्मकी दृढ़तामें हरएक मनुष्यको अवश्य उद्यम करना चाहिये । • रख्खा हुवा धर्म छोड़ा नहीं जा गुरु महाराज का पूर्वोक्त उपदेश सुनकर रत्नकुमार ने सम्यक्त्व सहित परिग्रह परिमाण व्रत ऐसे ग्रहण किया कि एक लाख रत्न, दस लाखका सुवर्ण आठ, आठ मूडे प्रमाण मोती और परवाल, आठकरोड़ अलफियाँ, दस हजार भार प्रमाण चांदी वगैरह एवं सौ मूड़ा भार प्रमाण धान्य, बाकी के सब तरहके क्रयाशे लाख भार प्रमाण, छह गोकुल ( आठ हजार गाय भैंसे ) पांच सौ घर, दुकान, चारसौ यान- वाहन, एक हजार घोड़े, एक सौ बड़े हाथी, यदि इससे उपरान्त राज्य भी मिले तथापि मैं न रख्खूंगा। सच्ची श्रद्धासे
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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