SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 328
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१७ श्राद्धविधि प्रकरण तरह जो सुपात्रको दान दिया जाता है वह अतिथिसंविभाग गिना जाता है। इसलिये आगममें कहा है कि. अतिहि संविभागो नाम नायागयाणं ॥ कप्पणिज्जाणं अन्नपाणाइणं दव्याणं देसकाल ॥ . . सद्धा सक्कारपजुन पराए भत्तीए प्रायाणुग्गह बुद्धीए संजयाणं दाणं ॥ न्यायसे उपार्जन किया और साधूको ग्रहण करने योग्य जो भात, पानी, प्रमुख पदार्थका देश, कालके पेक्षासे श्रद्धा, सत्कार, उत्कृष्ट भक्तिसे और अपने आत्मकल्याण की बुद्धिसे साधूको दान दिया जाता है वह अतिथी संविभाग कहलाता है। "सुपात्रदान फल" सुपात्र दान देवता सम्बन्धी और मनुष्य सम्बन्धी, अनुपम मनोवाञ्छित सर्वसुख समृद्धि, राज्यादिक सर्वसंयोग की प्राप्ति पूर्वक निर्विघ्नतया मोक्षफल देता है, कहा है किः अभयं सुपत्तदाणं, अणुकंपा उचिम कित्तिदाणं च ॥ दुरहवि मुख्खो भणियो, तिमि विभोइनं दिति ॥ अभय दान, सुपात्र दान, अनुकंपा दान, उचित दान और कीर्ति दान इन पांच प्रकारके दानमसे पहले दो दान मोक्षपद देते हैं और पिछले तीन सांसारिक सुख देते हैं। पात्रताका विचार इस प्रकार बतलाया है कि उत्तमपत्तंसाह, मभिझपपत्तं च सावया भणिया॥ अविरय सम्मदिठी, जहन्न पत्त मुणेयव्वं ॥ उत्तम पोत्र साधु, मध्यम पात्र ब्रतधारी श्रावक और जघन्य पात्र अविरति, व्रत प्रत्याख्यान रहित समकितधारी श्रावक समझना। और भी कहा है किः मिथ्यादृष्टिसहस्रषु, वरपेको महाव्रती॥ अणुव्रती सहस्रषु, वरपेको महाव्रती॥१॥ . .. महाव्रती सहस्रषु, वरयेको हि तात्त्विकः ॥ तात्विकस्य समं पात्र न भूतं न भविष्यति ॥२॥ ... हजार मिथ्या दृष्टियोंसे एक अणुव्रती-व्रतधारी श्रावक अधिक है, हजार अणुव्रत श्रावकोंसे एक महाप्रती साधु अधिक है, हजार साधुओंसे एक तत्वज्ञानी अधिक है, और तत्ववेत्ता केवलीके समान, अन्य कोई भी पात्र न हुवा है न होगा। - सत्पात्र महती श्रद्धा, काले देयं यथोचितं ॥ धर्मसाधनसामग्री, बहुपुण्यैरवाप्यते ॥३॥ . उत्तम पात्र, अति श्रद्धा, देनेके अवसर पर देने योग्य पदार्थ और धर्मसाधन की सामग्री ये सब बड़े पुण्यसे प्राप्त होते हैं । दानके गुणोंसे विपरीततया दान दे तो वह दानमें दूषण गिना जाता है। अनादरो विलंबश्च, वैमुख्यं विप्रियं वचः॥ पश्चात्तापं च पंचापि, सदानं दुषयंत्यपि ॥४॥ अनादर से देना, देरी लगाकर देना, मुँह चढाकर देना, अप्रिय वचन सुनाकर देना, देकर पीछे पश्चा. त्ताप करना, ये पांच कारण अच्छे दानमें दूषणरूप हैं। दान न देनेके छह लक्षण बतलाये हैं। भिउडी उद्धा लोअण, अंतोवत्ता परं मुहं ठाणं ॥ मोणं काल विलंबो, नकारो छविहो होई॥॥ ..... भृकुटि चढाना, (देना पड़ेगा इसलिये मुखविकार करके आंखें निकालना या भृकुटि चढाना) सामने
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy