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________________ श्राद्धविधि प्रकरण अकालका विचार करनेकी जरूरत पड़ती है) ३ सुलभ द्रव्य है या दुर्लभ ? (ऐसा आहार साधुको दूसरी जगहसे मिल सकेगा या नहीं इस बातका विचार करके वहराना ) ४ आचार्य, उपाध्याय, गीतार्थ, तपस्वी, बाल, वृद्ध, रोगी और भूखको सहन कर सके ऐसे तथा भूखको सहन न कर सके ऐसे मुनियोंकी अपेक्षाओं का विचार करके किसोकी अदावतसे नहीं, अपनी बड़ाईसे नहीं, किसीके मत्सरभाव से नहीं, स्नेह भावसे नहीं, लज्जा, भय या शरमसे नहीं, अन्य किसीके अनुयायी पनसे नहीं; उन्होंके किये हुये उपकारका बदला देनेके लिये नहीं, कपटसे या देरी लगाकर नहीं, अनादरसे या खराब बचन बोल कर नहीं, और पीछे पश्चात्ताप हो वैसे नही, दान देने में लगते हुये पूर्वोक्त दोष रहित अपने आत्माका उद्धार करनेकी बुद्धिसे बैतालीस दोष मुक्त हो बोहरावे। संपूर्ण अन्न, पानी, वनादिक, इस तरह अनुक्रमसे स्वयं या अपने हाथमें गुरुका पात्र लेकर या स्वयं बराबरमें खड़ा रहकर स्त्री, माता, पत्री, प्रमुखसे दान दिलावे। दान देनेमें ४२ दोष पिंड विश द्धिकी युक्ति वगैरहसे समझ लेना । फिर उन्हें नमस्कार करके घरके दरवाजे तक उनके पीछे जाय । यदि गुरु न हो तो या भिक्षाके लिये न आये हों तो भोजनके समय · घरके दरवाजे पर आकर जैसे बिना बादल अकस्मात वृष्टी होनेसे प्रमोद होता है वैसे ही आज इस वक्त यदि कदाचित् गुरुका आगमन हो तो मेरा अवतार सफल हो इस प्रकारके विचारसे दिशावलोकन करे । कहा है कि:जं साहूण न दीन्न, कहिपि तं सावया न भुजंति, पत्ते मोश्रण समए, दारस्सा लोअणं कुज्जा॥ जो पदार्थ साधुको न दिया गया हो वह पदार्थ स्वयं न खाय। गुरुके अभावमें भोजनके अवसर पर अपने घरके दरवाजे पर आकर दिशावलोन करे। संथरणंमि असुद्ध' । दुण्हंवि गिराहत दितयाण हियं ॥ पाउर दिटं तेणं । तं चेव हिनं असंथरणे ॥२॥ संथरण याने साधुको सुख पूर्वक संयम निर्वाह होते हुये भी यदि अशुद्ध आहारादिक ग्रहण करे तो लेने वाले और देने वाले दोनोंका अहित है। और असंथरण याने अकाल या ग्लानादिक कारण पड़ने पर संयमका निर्वाह न होने पर यदि अशुद्ध ग्रहण करे तो रोगीके दृष्टान्तसे लेने वाले और देने वाले दोनोंका हितकारी है। पहसंत शिलापेसु, पागमगाहीसु तहय कयलोए । उत्तर पारण गंमिश्र, दिण्हंसु बहुफलं होई ॥१॥ मार्गमें चलनेसे थके हुयेको रोगी और आगमके अभ्यासको एवं जिसने लोच किया हो उसको तरवा. रने या पारनेके समय दान दिया हुवा अधिक फल दायक होता है । एवं देसन्तु खितं नु, विप्राणित्ताय सावो। फासुग्रं एसणिज्जंच, देइजं जस्स जुग्गयं ॥२॥ असणं पानगं चेव, खाइमं साइमं तहा। ओसहं मेसहं चेव, फासु एसणिज्जयं ॥३॥ इस प्रकार देश क्षेत्रका विचार करके श्रावक अचित्त और ग्रहण करने लायक जो जो योग्य हो सो दे। अशन, पान, खादिम, स्वादिम, औषध, भैषज, प्रासुक, एषणिक, बैतालीस दोष रहित दे, साधु निमन्त्रणा विधि भिक्षा ग्रहण विधि, वगैरह हमारी की हुई वन्दिता सूत्रकी अर्थ दीपिका नामक बृत्तिसे समझ लेना। इस
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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