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________________ श्राद्धविधि प्रकरण संसार रूप घरमें पंच प्रमाद रूप अग्नि सुलग रहा है उसमें प्राणी मोहरूप निद्रामें सो रहा है, जो मनुष्य उसे जागृत करे वह उसके उत्कृष्ट बांधव समान है। भाइयोंके परस्पर प्रीति रखनेके बारे में श्री ऋषभदेव स्वामीके अठाणवें पुत्र भरत चक्रवर्तीके दूत आनेसे ऋषभदेव को पूछने गये तब भगवानने कहा कि, बड़े भाईके साथ विरोध करना उचित नहीं, संसार विषम है, सुखकी इच्छा रखने वालेको संसारका परित्याग ही करना योग्य है । यह सुनकर अट्ठाण भाइयोंने दीक्षा ग्रहण की परन्तु अपने बड़े भाई भरतके साथ युद्ध करनेको तैयार न हुये इसी तरह भाईके समान मित्रको भी समझना चाहिये। ___अपनी स्त्रीको स्नेह युक्त बचन बोलनेसे और उसका सन्मान करनेसे उसे अपने और अपने प्रेमके सन्मुख रखना, परन्तु उसे किसी प्रकारका दुःख न होने देना । क्योंकि स्नेह पूर्ण वचन ही प्रेमको जिलाने का उपाय है। सर्व प्रकारके उचित आचरनेमें प्रेम और सन्मान पूर्वक अवसर पर उसे जैसा योग्य हो वैसा सन्मान देना यह एक ही सबसे अधिकतर गिना जाता है और इसीसे सदाके लिये प्रेम टिक सकता है। इसलिये कहा है कि-प्रिय बचनसे बढ़ कर कोई वशीकरण नहीं है सत्कारसे कोई भी अधिक धन नहीं है, दयासे बढ़कर कोई भी उत्कृष्ट धर्म नहीं है, और संतोषसे बढ़कर कोई धर्म नहीं। ___ अपनी सेवा सुश्रूषाके कार्यमें स्त्रीको प्रेम पूर्वक प्रेरित करे। उसे स्नान करानेके काममें, पैर दबानेके कार्यमें, शरीर मर्दन कराने के कार्य में और भोजनादिके कार्यमें नियोजित करे । क्योंकि उसे ऐसे कार्यमें जोड़ रखने से उसे अभिमान नहीं आता। विश्वासके पात्र होती है, सच्चा प्रेम प्रकट होता है, अयोग्य बर्ताव करने से छुटकारा मिलता है, अपने कार्य में शिथिलता आनेसे उपालम्भ का भय रहता है, गृह कार्य संभालने की चिवट रहती हैं, इत्यादि बहुतसे कारणोंका लाभ होता है। तथा अपनी स्त्रीको देश, काल विभवके अनुसार वस्त्र भूषण पहराना, जिससे उसका चित्त प्रसन्न रहे । अलंकार और वस्त्रोंसें सुशोभित स्त्रियां ही गृहस्थके घरमें लक्ष्मीकी वृद्धि कराती है। इसलिए नीति शास्त्रमें भी कहा है कि • श्री मंगलात्मभबति । प्रागल्भाच्च प्रवर्धते॥ दाच्यात्तु कुरुते मूलं । संयपात्मतितिष्ठति ।। __ लक्ष्मी मांगलिक कार्योंसे प्रगट होती है, चातुर्यतासे व्यापार युक्तिसे बृद्धि पाती है, विचक्षणता से स्थिर होती है, और सदुपयोग से प्रतिष्ठा पाती है। __ जैसे निर्मल और स्थिर जल पवनसे हिले बिना नहीं रहता और निर्मल दर्पण भी पवनसे उड़ी हुई धूलसे मलीन हुये बिना नही रहता वैसे ही वाहे जितने निर्मल स्वभाव वाली स्त्री हो तथापि यदि जहां अधिक मनुष्योंका समुदाय इकठ्ठा होता है, ऐसे नाटक प्रेक्षणादिकमें या रमत गमत देखनेके लिये उसे जाने दे तो अवश्य उसके मनमें खराब लोगोंकी चेष्टायें देखनेमें आनेके कारण मलीनता भाये बिना नहीं रहती। इसलिए जिसे स्त्रीको अपनी कुल मर्यादामें रखनेकी इच्छा हो उसे स्त्रियोंको नाटकमें या वाहियात मेले ठेलोंमें, या हलके खेल तमाशोंमें कदापि न जाने देना चाहिये।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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