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________________ aamanand २९६ श्राद्धविधि प्रकरण ___ कदाचित खराव संगतिसे अपना भाई बवन मान्य न करे और खराब रास्ते जाय तब उसके मित्रों द्वारा या सगे सम्बन्धियों द्वारा उसे उसके खराब प्रकृतिके लिए उपालम्भ दिलावे। सगे सम्बन्धी चाचा, मामा; ससुर, साला वगैरहके द्वारा उसे स्नेह युक्त समझावे परन्तु उसे स्वयं अपने आप उपालम्भ न दे, क्योंकि अपने आप धमकाने से यदि वह न माने और मर्यादाका उलंघन करे तो उससे अन्तिम परिणाम अच्छा नहीं आता। ___ खराब रास्ते जाते हुये भाई पर अन्दरसे स्नेह होते हुये भी बाहरसे उसके साथ रूठ गयेके समान दिखाव करना और जब वह अपना आचरण सुधार ले तब ही उसके साथ प्रेम युक्त बोलना । यदि ऐसा करने पर भी न माने तब यह विचार करना कि इसका स्वभाव ही ऐसा है। स्वभाव बदलने की कुछ भी औषधि नहीं इसलिये उसके साथ उदासीन भाव रखकर वर्ताव करना। __ अपनी स्त्री और भाईकी स्त्री तथा अपने पुत्र पौत्रादिक और भाईके पुत्र पौत्रादिक पर समान नजर रख्खे । परन्तु ऐसा न करे कि, अपने पुत्रको अधिक और भाईके पुत्रको कुछ कम दे तथा सौतेली माताके पुत्र पर अर्थात् सौतीले भाई या उसके पुत्र, पुत्री, वगैरह पर अधिक प्रेम रख्खे क्योंकि उनका मन खुश न रख्खें तो लोकमें अपवाद होता है, और घरमें कलह उपस्थित होता है। इसलिये उनका मन अपने पुत्र पुत्रीसे भी अधिक खुश रखनेसे बड़ी शान्ति रहती है। इस प्रकार माता पिता भाई वगैरहकी यथोचित हिपाजत रखना । इसलिये नीति शास्त्रमें भी लिखा है कि जनकश्चोपकर्ता च । यस्तु विद्यां प्रयच्छति ॥ अन्नदः प्राणदश्चैव । पंचैते पितरः स्मृताः ॥१॥ जन्म देने वाला, उपकार करने वाला, विद्या सिखाने वाला, अन्न दान देने वाला; और प्राण बचाने वाला, इन पांच जनोंको शास्त्र में पिता कहा है ! राजपत्नी गुरोः पत्नी। पत्नी माता तथैव च ॥ स्वमाता चोपपाता च । पंचैते मातरः स्मृताः॥२॥ राजाकी रानी, गुरुकी स्त्री, सासू, अपनी माता, सौत माता, इन पांचोंको माता कहा है। सहोदरः सहाध्यायी। मित्रं वा रोगपालकः ॥ मार्ग वाक्यसखायश्च । पंचैते भ्रातरः स्मृताः॥३॥ एक मातासे पैदा हुये सगे भाई, साथमें विद्याभ्यास करने वाले मित्र, रोगमें सहाय करने वाले, और रास्ता चलते बात चीतमें सहाय करने वालोंको भाई कहा है। भाई को निरन्तर धर्म कार्यमें नियोजित करना, धर्म कार्यमें याद करना चाहिये। इसलिये कहा भवगिह समझमि पमाय । जलण जलिअंपि मोहनिहाए ॥ . उठवइ जोम सुअंतं । सो तस्सजणो परमवन्धु ॥४॥
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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