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________________ श्राद्धविधि प्रकरण सकूगा ? और इस स्त्री सहित इन शत्रुओं के साथ मैं युद्ध भी कैसे करूंगा? राजा इन विचारों की बुनाउघेड़ी में लगा हुआ था इतनेही में "जयजीव” 'चिरंजीव' हे महाराज ! जयहो जय हो' हे महाराज ! इस ऐसी परिस्थिति में हमें आपके दर्शन हुए और आप निज स्थान पर आ पहुंचे इससे हम हमारा अहोभाग्य समझते हैं। जिस प्रकार किसी का खोया हुआ धन पुनः प्राप्त होता है उसी प्रकार हे महाराज! आज आपका दर्शन आनंददायक हुआ है। आप अब हमें आज्ञा दो तो हम शत्रु के सैन्य को मार भगावें। अपने भक्त खसैनिकों का ही यह बवन है ऐसा समझता हुआ राजा सचमुच अपनी ही सेना के पास अपने आपको खड़ा देखता है। यह देखकर अत्यन्त बिस्मय को प्राप्त हो प्रसन्न चित्तसे राजा उनसे पुछने लगा कि, अरे ! इस वक्त तुम यहां कहां से आये ? उन्होंने उत्तर दिया कि, स्वामिन् आप यहां पधारे हैं यह जानकर हम आपके दर्शनार्थ और आपकी आज्ञा लेने के लिए आये हैं। श्रोता, वक्ता, और प्रक्षक को भी अकस्मात् चमत्कार उत्पन्न करे इस प्रकार का समाचार पाकर राजा विचार कर बोलने लगा कि, आप्तवाक्य (सर्वज्ञवाक्य) अविसंबाद से ( सत्य बोलने से ) जैसे सर्वथा माननीय है वैसे ही इस शुकराज का वाक्य भी-अहो आश्चर्य कि अनेक प्रकारके उपकार करने से सर्वथा मानने योग्य है । इस शुकराज के उपकार का बदला मैं किस तरह दे सकूगा ? इसे किन किन वस्तुओं की चाहना है सो किस प्रकार मालूम होगा ? मैं इसपर चाहे कितना ही उपकार करू तथापि इसके उपकार का बदला नहीं दे सकता। क्योंकि इसने प्रथम से ही समयानुसार यथोचित् सानुकूल वस्तुप्राप्ति वगैरह के मुझपर अनेक उपकार किये हैं। इसलिए इसके उपकारों का बदला देना मुश्किल है। शास्त्रों में कहा है कि प्रत्युपकुर्वति बह्वपि न भवति पूर्वोपकारिणस्तुल्यः । एकोनुकरोति कृतं निष्कारणमेव कुरुतेऽन्यः ॥ १॥ अर्थ “चाहे जितना प्रत्युपकार करो परंतु पहले किये उपकारी के उपकार का बदला दिया नहीं जा सकता; क्योंकि उसने उपकार करते समय प्रत्युपकारकी आशा न रखकर ही उपकार किया था। इस तरह प्रीतिपूर्वक राजा जब शुकराज के सन्मुख देखता है तो वह अकस्मात विद्याधर तथा दैविक शक्ति धारण करने वाले देवता के समान लोप होगया। मानो राजा प्रत्युपकार द्वारा मेरे उपकार का बदला वापिस देगा इस भय से ही संत पुरुष के समान अदृश्य होगया। शुकराज उस वृक्ष को छोड़कर बड़ी त्वरित गति से एक दिशा की तफर उड़ता नजर आया। इस लोकोक्ति के अनुसार कि--सजनपुरुष दूसरे पर उपकार करके प्रत्युपकार के भयसे शीघ्र ही अपना रास्ता पकडते हैं, वह तोता भी राजा पर महान् उपकार करके अनंत आकाशमें उड गया। तोते को बहुत दूर उड़ता देख राजा साश्चर्य और खेद पूर्वक बिचारने लगा कि यदि ऐसा ज्ञाननिधि शुकराज निरंतर मेरे पास रहता हो तो फिर मुझे किस बात की त्रुटि रहे ? क्योंकि सर्व कार्यों के उपकार एवं प्रत्युपकार के समय को जानने वाले सहायकारी का योग प्रायः सदाकाल सर्वत्र सबको हो नही सकता। कदाचित् किसी को योग बन भी जाय तथापि निर्धन के हस्तगत वित्त के समान चिरकाल तक कदापि नहीं
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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