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________________ श्राद्धविधि प्रकरण १४ मृद्धिके लिये किस को लालच न हो ? । खबर मिलते। चंद्रशेखर राजा तुम्हारा राज्य लेनेकी आशासे चतुरंग सैन्य साथ लेकर तुम्हारे नगर पास आ पहुंचा। यह समाचार मालूम होने पर तुम्हारे मंत्री सामन्तोंने arth दरवाजे बन्द कर दिये हैं, इससे चन्द्रशेखर राजा निधि पर सर्पके समान अतुल सैन्य द्वारा आपके नगरको घेर कर पड़ा है। किले पर चढ़ कर तेरे वीर सुभट चारों तरफसे चंद्रशेखर के साथ युद्ध कर रहे हैं। परन्तु "हतं सैन्यमनायकम्” इस लौकिक कहावत के अनुसार स्वामी बिना की सेना शत्रुओं को कैसे जीत सकती है ? | जहां इस प्रकार का युद्ध मच रहा है वहां पर हम किस तरह जा सकते हैं ?। यह सब जानकर ही मैं मनमें खेद करता हुआ आगे न जाकर इस वृक्षकी टहनी पर बैठ गया हूं। आगे न जानेमें यही अलाधारण कारण है 1 यह समाचार सुनते ही राजाका मुंह सूख गया। उसके हृदय में हर्ष के बदले विषाद छा गया उसके चेहरे की प्रसन्नता चिन्ता ने छीन ली। वह मन ही मन बिचारने लगा कि धिक्कार हो ऐसी दुरावारिणी स्त्री के दुष्ट हृदय को ! आश्चर्य है इस स्वामीद्रोही चन्द्रशेखर की साहसिकता को । खैर इसमें अन्य का दोष ही क्या है ? सुने राज्य पर कौन न घढाई करे ? इसमें सब मेरी ही विचारशून्यता और अविवेक है, यदि मैं अविवेकी के समान मोह ग्रस्त होकर एकदम मंत्री सामन्तों को सुचित किये बिना अनिश्चित कार्य के लिये साहस करके न दौड़ जाता तो आज मुझे इस आपत्ति का अनुभव क्यों करना पड़ता ? विद्वानों का कथन है कि अविचारित कार्य के अन्त में पश्चात्ताप हुआ ही करता है । इस भयंकर परिस्थिति में राज्य को स्वाधीन करना बड़ा कठिन कार्य है। यद्यपि चन्द्रशेखर मेरे सामने कोई चीज नहीं है परन्तु ऐसी दशा में जब कि घर के भेदी द्वारा उसने सारे शहर को घेर लिया है, एकाकी निःसहाय उसका सामना करके पुनः राज्य प्राप्त करने की चेष्टा करना सर्वथा अशक्य है। इस समय राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिये कोई भी उपाय नहीं सूझता । राज्य को अपने हाथों से गया समझ कर राजा पूर्वोक्त चिन्ता में निमग्न था। मन ही मन चारों ओर से निराशा के स्वप्न देख रहा था, इतने में शुकराज बोला--राजन् ! इतनो चिन्ता करने का कारण नहीं । चतुर वैद्य के कथनानुसार वर्तने वाले रोगो की व्याधि क्या दूर नहीं हो सकती ? मैं तुझको एक उपाय बतलाता हूं, वैसा करने से तेरा श्रेय अवश्य होगा। तू यह न समझना कि तेरा राज्य गया । नहीं अभी तो तू बहुत बर्ष तक सुखपूर्वक राज्य भोगेगा । अमृत समान शुकराजके बचन सुन कर राजा को बड़ा आनन्द हुआ । कमलमालाकी पूर्वोक्त घटना उसके कथनानुसार यथार्थ बनने से राजा. शुकराज के वचन पर ज्ञानी के बचन समान श्रद्धा रखता था। राजा मन ही मन बिचार करता था कि शुकराज के कथनानुसार चाहे जिस उपाय से मेरा राज्य मुझे पुनः अवश्य प्राप्त होगा, इतनेही में समाने देखता है तो सन्नद्धबद्ध चतुरंग सैन्य त्वरित गति से राजा के सामने आ रहा है: यह देखकर राजा भयभीत हो बिचारने लगा कि जिस चंद्रशेखर राजा की साहसिकता देखकर मेरा हृदय क्षुभित हो रहा था यह उसी की सेना मुझे मारने के लिए मेरे सामने आ रही है। ऐसी परिस्थिति में इस कमलमाला का रक्षण किस तरह कर
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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