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________________ श्राविधि प्रकरणे कर मणका तैयार कर उसे एक लाख रुपयेमें बेच दिया। इससे वह पूर्ववत् पुनः श्रीमन्त होगया। अर्थात् बकरीके गलेमें बन्धे हुए उस नील मणिके छोटे २ एक सरीखे मणके बनाकर उन्हें एक एक लाखमें बेचकर वह फिरसे पूर्ववत् कोटिध्वज श्रीमन्त बना। अब उसने अपने कुटुम्बको घर बुलवा लिया। अब वह साधु ओंको निरन्तर उचित दान देता है, स्वधर्मिक वात्सल्य करता है, दानशालायें खुलवाता है, समहोत्सव मन्दिरों में पूजायें कराता है, छह छह महीने समकित धारी श्रावकोंकी पूजा करता है, नाना प्रकारके पुस्तक लिखा कर उनका भंडार कराता है। नये बिम्ब भरवाता है, प्रतिष्ठायें कराता है; जीर्णोद्धार कराता है; एवं अनेक प्रकारसे दीन दुखी जनोंको अनुकंपा दानसे सहाय्य करता है। इस प्रकार अनेक धर्म करणियां करके अन्समें आभड चौरासी बर्षकी अवस्थासे अपने किये हुए धर्म कृत्यकी टीप पढ़ाते हुए भीमशायी सिक्के के अन लाख रुपये खर्चे हुए पढ़कर खेद करने लगा कि, हा हा ! मैं कैसा हूँ कि, जिससे एक करोड़ रुपया भी धर्ण मार्गमें न खर्चा गया। तब उसके पुत्रोंने मिलकर उसके नामसे दस लाख रुपये उसके देखते हुए धर्म मार्गमें खर्चकर एक करोड और आठ रुपये पूर्ण किये। अन्तमें आठ लाख धर्ण मार्गमें खर्ग करानेका अपने पुत्रोंसे मंजूर कराकर अनशन कर आभड स्वर्ग सिधाया। ___कदाचित् खराब कर्मके योगसे गत लक्ष्मी वापिस न मिल सके तथापि धैर्य धारण कर आपत्ति रूप समुन्द्रको तरनेका प्रयत्न करना। क्योंकि आपदारूप समुन्द्रमें से उत्तारने वाला एक जहाज समान मात्र धैर्य ही है। पुरुषोंके सब दिन एक सरीखे नहीं होते। सर्व प्राणियोंको अस्त और उदय हुवा ही करता है। कहा है कि इस जगतमें कौन सदा सुखी है, क्या पुरुषकी लक्ष्मी और प्रेम स्थिर रहते हैं, मृत्युसे कौन क्व सकता है, कौन विषयोंमें लंफ्ट नहीं। ऐसी कष्टकी अवस्थामें सर्व सुखोंके मूल समान मात्र संतोषका ही आश्रय लेना उचित है। यदि ऐसा न करे तो उन आपदाओं की चिन्तासे वह दोनों भवमें अपनी आत्माको परिभ्रमण कराता है । शास्त्र में कहा है कि:-'आशाहप जलसे भरी हुई चिन्तारूपिणी नदी पूर्णवेगसे वह रही हैं, उसमें असंतोष रूपी नावका आलम्बन लेने पर भी हे मन्द तरनेवाले ! तू डूबता है, इसलिये संतोष सप तूंचे का आश्रय ले ! जिससे तू सचमुख पार उतर सकेगा। : यदि विविध उपाय करने पर भी अपने भाग्यकी हीन ही दशा मालूम हो तो किसी श्रेष्ठ भाग्यशाली का आश्रय लेकर ( उसके साथ हिस्सेदार हो कर) व्यपार करना । जैसे काष्टके अधारसे लोह और पाषाण भी कर सकता है वैसे ही भाग्यशाली के आश्रयसे लाभकी प्राप्ति हो सकती है। "हिस्सेदार के भाग्यसे प्राप्त लाभ पर दृष्टान्त" सुना जाता है कि एका व्यापारी किसी एक बड़े भाग्यशाली के प्रतापले उसके साथ हिस्से में व्यापार करनेसे धनवन्त एका पर जब अपने नामसे जुदा व्यापार करता है तब अवश्य नुकसान उठाता है। ऐसा होने का फिर शेळके साथ हिस्सेदारी में व्यापार करता है। उसने इसी प्रकार कितना एक देको धन मोका और कमाया भन्समें वह मर नया सरन्यापारी निर्भनयासिस स स शेठक पुत्रक
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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