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________________ श्राद्धविधि प्रकरण २३१ की तलहटी के पास घेटी नामक गांवमें आकर रातको रहा। वहां पर एक शूर नामक व्यापारी रहता था, उसकी पुत्री नाम और गुणसे भी 'सुशीला' थी। सरस्वती के वरदान को पाई हुई साक्षात् सरस्वतीके हो समान वह कन्या कितनी एक दूसरी कन्याओं के साथ अपने पिताके गृहांगण के आगे खेलती थी। उसे लक्षण सहित देख अजायब हो जावडके मामाने विचार किया कि आकाश में जैसे अगणित ताराओं के बीच चन्द्रकला झलक उठती है वैसी ही सुलक्षणों और कान्ति सहित सचमुच ही यह कन्या जावड़के योग्य है। परन्तु यह किसकी है, किस जातिकी है, क्या नाम है, यह सब किसीको पूछकर वह उस कन्याके बाप सूरसे मिला। और उसने बहुमान पूर्वक जावड़के लिए उस कन्याकी याचना की। यह सुन कन्याके पिताने जावड़को अत्यन्त ऋद्धिवान जानकर कुछ उत्तर देनेकी सूझ न पड़. नेसे नीची गर्दन कर ली, इतने में ही वहांपर खड़ी हुई बह कन्या कुछ मुस्करा कर अपने पितासे कहने लगी कि, जो कोई पुरुषरत्न मेरे पूछे हुए चार प्रश्नोंका उत्तर देगा मैं उसके साथ सादी कराऊंगी; अन्यथा तपश्चर्या ग्रहण करूंगी, परन्तु अन्यके साथ सादी नहीं करूंगी। यह वचन सुनकर प्रसन्न हुवा जाबड़ का मामा शूर नामक व्यापारीके सारे कुटुम्बी सहित अपने साथ लेकर मधुमति नगरीमें आया और भावड़को'कह कर उन्हें अच्छे स्थानमें ठहराकर उनकी खातिर तवज की। अन्तमें उन्हें जाबड़के साथ मिलाप करानेका वायदा कर सर्वाङ्ग और सर्व अवयवोंसे सुशोभित करके सुशीलाको साथ ले जाबड़के पास आया। बहुतसे पुरुषोंके बीचमें बैठे हुये जाबड़को देखकर तत्काल ही उस मुग्धा सुशीलाकी आँखे ठरने लगीं। फिर मन्द हास्य पूर्वक मानो मुखसे फूल झडते हों इस प्रकार वह कन्या उसके पास आकर बोलने लगी कि हे विचक्षण सुमति ! १ धर्म, २ अर्थ, ३ काम और ४ मोक्ष, इन चार पुरुषार्थोंका अभिप्राय आप समझते हैं ? यदि आप जानते हों तो इनका यथार्थ स्वरूप निवेदन करें । सर्व शास्त्र पारगामी जावड़ बोला हे सुभ्र ! यदि तुम्हें इन चार पुरुषार्थोके लक्षण ही समझने हैं तो फिर मैं कहता हूं उस पर ध्यान देकर सुनिये । तत्त्वरत्न त्रयाधार। सर्वभूत हित प्रदः॥ चारित्र लक्षणो धर्मा कस्य शर्मकरो नहिं॥१॥ .. हिंसाचौर्यपरद्रोह मोहक्लेशविवर्जितः । सप्त क्षेत्रोपयोगीस्या दथो नर्थविनाशकः ॥२॥ जातिस्वभाव गुणभृल्लुप्तान्यकरणः क्षणं । धर्मार्थाबाधककामो । दंपत्यो ववन्धनं ॥३॥ कषायदोषापगत साम्यवान् जितमानसः । शुक्लध्यानमयस्वात्मांत्यक्षोमोक्षइतिारतः॥४॥ १धर्म-रत्नत्रयीका आधार भूत, तमाम प्राणियोंको सुख कारक ऐसा चारित्र धर्म किसे नहीं सुखकारक होता ? २ अर्थ-हिंसा चोरी, परद्रोह, मोह, क्लेश, इन सबको बर्ज कर उपार्जन किया हुवा, सात क्षेत्रमें खर्च किया जाता हुवा जो द्रव्य है क्या वह अनर्थका विनाश नहीं करता ? अर्थात् ऐसे द्रव्यसे अनर्थ नहीं होता।३ काम-सांसारिक सुख भोगनेके अनुक्रमको उलंघन न करके धर्म और अर्थको बाधा न करते हुए समान जाति स्वभाव और गुणवाले स्त्री पुरुषोंका जो मिलाप है उसे काम कहते हैं। ४ मोक्ष-कषायदो. षका त्यागी शांतिवान जिसने मनको जीता है ऐसा शुक्लध्यानमय, जो अपनी आत्मा हैं वह अन्त्यक्ष याने मोक्ष मिना जाता है।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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