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________________ श्राद्ध विधि प्रकरण "व्यापार विधि" व्यापारियोंको व्यवहार शुद्धि बगैरहसे धर्मका अविरोध होता है। व्यापारमें निर्मलता हो और यदि सत्यतासे व्यापार किया जाय तो उससे धर्ममें विरोध नहीं होता, इसलिए शास्त्रमें कहा है कि ववहार सुद्धि देसाइ । विरुद्धचाय उचिम चरणेहि ॥ तो कुणई अथ्य चित । निन्याहितो निभं धम्म । व्यवहार शुद्धिसे, देशादिके विरुद्धके त्याग करनेसे, उचित आवरणके आयरनेसे, अपने धमका निर्वाह करते हुए तीन प्रकारसे द्रव्योपार्जन की चिन्ता करे। वास्तविक विचार करते व्यवहार शुद्धिमें मन, बचन, कायाकी सरलता युक्त, निर्दोष व्यापार कहा है। इसलिए व्यापारमें मन बचन, कायासे कपट न रखना, असत्यता न रखना, ईर्षा न करना, इससे व्यवहार शुद्धि होती है। तथा देशादिक विरुद्धका त्याग करके व्यापार करते हुए भी जो द्रव्य उपार्जन किया जाता है वह भी न्यायोपार्जित वित्त गिना जाता है। उचित आचारके सेवन करनेसे याने लेने देनेमें जरा भी कपट न रखकर जो द्रब्य उपार्जन होता है सोही न्यायो. पार्जित वित्त गिना जाता है। ऊपर बतलाये हुए तीन कारणोंसे अपने धर्मको बवा कर याने स्वयं भंगीकार किये हुए व्रत प्रत्याख्यान अभिग्रहका बचाव करते हुए धन उपार्जन करना, परन्तु धर्मको किनारे रखकर धन उपार्जन न करना। लोभमें मोहित हो स्वयं लिये हुए नियम व्रत, प्रत्याख्यान भूल कर धन कमानेकी दृष्टि न रखना, क्योंकि, वहुतसे मनुष्योंको प्रायः व्यापारके समय ऐसा ही विचार आ जाता है। इसके लिए कहा है कि , (लोभीष्ट पुरुष बोलते हैं कि,) नहि तद्विद्यते किंचि। धद्रव्येन न सिध्यति । यत्नेन मतिमस्तिस्मा। दर्थमेकं प्रसाधयेत् ॥ ऐसा जगतमें कुछ नहीं कि, जो धनसे न साध्य होता हो, इसी लिए बुद्धिमान पुरुषको बड़े यत्नसे द्रव्य उपार्जन करना चाहिए, मात्र ऐसे विद्यारमें मशगूल हो अपने व्रत प्रत्याख्यान को कदापि न भूलना। धन उपार्जन करनेसे भी पहले धर्म उपार्जन करनेकी आवश्यकता है । निव्वाहतो निमं धम्म' इस गाथाके पदमें बतलाये मुजब बिचार करनेसे यहो समझा जाता है कि:- . अत्रार्थचिंतामित्यनुवाच। तस्याः स्वयं सिद्धवाद । .धर्म निर्वाह यनिर्तितु । विधेय ममामत्वाव अर्थ चिन्ता-धनोपार्जन यह पीछे करने लायक कार्य है। क्योंकि अर्थ चिन्ता तो अपने आप ही पैदा होती हैं। इसलिए धर्म निर्वाह करते हुए धन उपार्जन करे, ऐसे पदकी योजना करना। धन नहीं मिला इसलिये धर्म करना योग्य है । यदि धर्ग उपार्जन किया होता तो धनकी चिन्ता होती ही क्यों? क्यों कि, धन धर्मके अधीन है, यदि धर्म हो तब ही धनकी प्राप्ति होती है। इसलिये धन उपार्जन करनेसे पहले धर्म सेवन करना योग्य है। क्योंकि उससे धनकी प्राप्ति सुगमता से होती है कहा है कि:--
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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