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________________ २०७ श्राद्धविधि प्रकरणा दण्ड करना हो सो फरमायें । राजाने उसी वक्त स्मृतियों के अर्हन्नीति वगैरह कायदोंके जानकारों को बुलवा कर पूछा कि, "इस गुनाहका क्या दण्ड करना चाहिये ?" वे बोले - "स्वामिन्! राजपद के योग्य यह एकही राजपुत्र होनेसे इसे क्या दण्ड दिया जाय ?” राजाने कहा “किसका राज्य ? किसका पुत्र ? मुझे मुझे न्याय ही प्रधान है। मैं किसी पुत्रके लिये या राज्यके लिए हिचकिनीतिमें कहा है: तो न्यायके साथ सम्बन्ध है । चाऊं ऐसा नहीं हूं । दुष्टस्य दंडः खजनस्य पूजा । न्यायेन कोशस्य च संपवृद्धिः ॥ अपक्षपातो रिपुराष्ट्ररता। पंचैव यज्ञाः कथिताः नृपाणां ॥ दुका दंड, सज्जनका सत्कार, न्याय मार्गसे भंडारकी वृद्धि, अपक्षपात, शत्रुओंसे अपने राज्यकी रक्षा राजाओंके लिए ये पांच प्रकारके ही यज्ञ कहे हैं। सोम नीतिमें भी कहा है कि, 'अपराधानुरूपो ही दडः पुत्रेऽपि प्रोतव्यः' पुत्र को भी अपराधके समान दंड करना । इसलिए इसे क्या दंड देना योग्य लगता है सो कहें ! तथापि वे लोग कुछ भी नहीं वोले और चुपचाप ही खड़े रहे । राजा वोला “इसमें किसीका कुछ भी पक्षपात रखने की जरूरत नहीं, 'कृते प्रतिकृतं कुर्याद' इस न्यायसे जिसने जैसा अपराध किया हो उसे वैसा दंड देना चाहिये। इसलिए यदि इसने इस बछड़े पर गाड़ीका चक्र फिराया है तो इस पर भी गाड़ीका चक्र ही फैरना योग्य है। ऐसा कहकर राजाने वहां एक घोड़ा गाड़ी मंगाई और पुत्रसे कहा कि :तू यहां सो जा । पुत्रने भी वैसा हो किया । घोड़ा गाड़ी चलाने वालेको राजाने कहा कि, इसके ऊपरसे घोड़ा गाड़ीका पहियां फिरा दो। परन्तु उससे गाड़ी न चलाई गई, तब सब लोगोंके निषेध करने पर भी राजा स्वयं गाड़ीवान को दूर करके गाड़ी पर चढ़कर उस गाड़ी को चलानेके लिए घोड़ोंको चाबुक मार कर उसपर चक चलानेका उद्यम करता है, उसी वक्त वह गाय बदल कर राज्याधिष्ठायिका देवीने जय २ शब्द करते हुए उस पर फूलोंकी वृष्टि करके कहा कि, 'राजन् ! तुझे धन्य है तू ऐसा न्यायनिष्ठ है कि, जिसने अपने प्राण प्रिय इकलौते पुत्रकी दरकार न करते हुए उससे भी न्यायको अधिकतर प्रियतम गिना । इसलिए तू धन्य है। तू चिरकाल पर्यन्त निर्विघ्न राज्य करेगा ! मैं गाय या बछड़ा कुछ नहीं हूं परन्तु तेरे राज्यकी अधिष्ठायिका देवी हूं। और मैं तेरे न्यायकी परीक्षा करनेके लिए आयी थी, तेरी न्यायनिष्ठता से मुझे बड़ा आनन्द और हर्ष हुवा है।" ऐसा कह कर देवी अदृश्य होगई । राजाके कार्यकर्ताओं को ज्यों राजा और प्रजाका अर्थ साधन हो सके और धर्ममें भी बिरोध न आवे वैसे अभयकुमार तथा चाणक्यादिके समान न्याय करना चाहिये। कहा है कि: नरपति हितकर्ता द्वेष्यता माति लोके । जनपदहितकर्ता मुहचते पार्थिवेन । इति महति विरोधे बर्तमाने समाने । नृपति जनपदानां दुर्लभः कार्यकर्त्ता ॥ राजाका हित करते हुए प्रजासे विरोध हो, लोगोंका हित करते हुए राजा नोकरीसे रजा दे देवे, ऐसे -दोनोंको राजी में घड़ा विरोध है ( दोनों को राजी रखना बड़ा मुश्किल है ) परन्तु राजा और प्रजा दोनों ओ हितका कार्य करने वाला भी मिलना मुश्किल है। ऐसे दोनोंका हितकारक बनकर अपना धर्म संभाल कर न्याय करना ।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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