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________________ - श्राद्धविधि प्रकरण १८१ सर्वस्व गंवा दिया। इससे दोनों जने बड़े खिन्न हुए। अन्तमें दोनों जने एक जहाजमें बैठकर कमानेके लिये रत्नद्वीपमें गये। वहां पर भी बहुतसे उद्यमसे भी कुछ न मिला, तब वहांकी महिमावन्ती रत्नादेवीके मन्दिरमें जाकर अन्न पानीका त्याग कर ध्यान लगाकर बैठ गये। जब आठ उपवास हो गये तब रत्ना. देवी आकर बोली-'तुम किस लिये भूखे मरते हो? तुम्हारे नशीबमें कुछ नहीं है। यह सुनकर कर्मसार तो उठ खड़ा हुवा परन्तु पुण्यसार वहां ही बैठा रहा और उसने इक्कीस उपवास किये। तब रत्नादेवीने उसे एक चिन्तामणि रत्न दिया। उसे देखकर कर्मसार पश्चात्ताप करने लगा, तब पुण्यसारने कहा"भाई त किसलिए विशाद करता है, इस चिंतामणि रत्नसे तेरा भी दारिद्रय दूर कर दूंगा। अब दोनों जने खुशी होकर वहाँसे पीछे चले और जहाजमें बैठे। जहाज महासमुद्र में जा रहा था, पूर्णिमाकी रात्रिका समय था उस वक्त पूर्णचन्द्रको देखकर बड़े भाई कर्मसारने कहा कि, भाई चिन्तामणि रत्नको निकाल तो सही, जरा मिलाकर तो देखें, इस चन्द्रमाका तेज अधिक है या चिंतामणिरत्न का ? कमनशीव के कारण दोनों जनोंका वही विचार होनेसे अगाध समुद्र में चले जाते हुए जहाजके किनारे पर खड़े होकर वे चिन्ता. मणि रत्नको निकाल कर देखने लगे । क्षणमें चन्द्रमाके सामने और क्षणमें रत्नके सामने देखते हैं। ऐसे करते हुए वह छोटासा चिन्तामणि रत्न अकस्मात् उनके हाथसे छूटकर उनके भाग्यसहित अथाह समुद्र में गिर पड़ा। अब वे दोनों जने पश्चात्ताप पूर्वक रुदन करने लगे। अब वे जैसे गये थे वैसे ही निर्धन मुफलिस होकर पीछे अपने देशमें आये। सुदेवसे उन्हें वहां कोई ज्ञानी गुरु मिल गये; वन्दन पूर्वक उनसे उन्होंने अपना नशीब पूछा तब मुनिराजने कहा कि, तुम पूर्वभवमें चन्द्रपुरनगर में जिनदत्त और जिनदास नामक परम श्रावक थे। एक समय उस गांवके श्रावकोंने मिलकर तुम्हें उत्तम श्रावक समझकर जिनदत्त को ज्ञानद्रव्य और जिनदासको साधारण द्रव्य रक्षणार्थ सुपूर्द किया, तुम दोनों जने उस द्रब्यकी अच्छी तरह सम्भाल करते थे। एक वक्त जिनदत्तको अपने कार्यके लिये एक पुस्तक लिखवाने की ज़रूरत पड़नेसे लेखकके पाससे लिखा लिया। परन्तु लिखाईका पैसा देनेके लिए अपने पास सुभीता न होनेसे उसने मनमें विवार क्यिा कि यह भी ज्ञान ही लिखाया है इसलिये ज्ञानद्रव्यमें से देने में क्या हरकत है ? यह विचार कर अपने कार्यके लिए लिखाये हुए पुस्तकके मात्र बारह रुपये उसने ज्ञानव्यमें से दे दिये। जिनदास ने भी एक समय जब उसे बड़ी हरकत थी विचार किया कि, यह साधारण दव्य सातक्षेत्रमें उपयुक्त करने लायक होनेसे मैं भी एक निर्धन श्रावक हूँ तो मुझे लेनेम क्या हरकत है ? यह धारणा कर साधारण की कोथलीमेंसे उसने एक ही दफा सिर्फ बारह रुपये लेकर अपने गृहकार्यमें उपयुक्त किये। ऐसे तुम दोनों जनोंने किसीको कहे विना ज्ञानव्य और साधारण दब्य लिया था जिससे वहांसे काल करके तुम पहली नरकमें नारकीतया उत्पन्न हुए थे। वेदान्तमें भी कहा है: प्रभासे मामति कुर्यात्माणौः कंठ गतरपि॥ अग्निदग्धा प्ररोहन्ति । प्रभादग्धा न रोहति ॥१॥ प्रभासं ब्रह्महत्या च । दरिद्रस्य च यद्धनं ।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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