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________________ १८२ श्राद्धविधि प्रकरण गुरुपत्नी देवद्रव्यंच । स्वर्गस्थ मपि पातयेत् ॥२॥ कंठगत प्राण हों तथापि साधारण द्रव्य पर नजर न डालना। अग्निसे दग्ध हुवा फिर ऊगता है परन्तु साधारण द्रव्यभक्षक फिर मनुष्य जन्म नहीं पाता। साधारण द्रव्य, ब्रह्महत्या, दारिद्रीका धन, गुरुकी स्त्रीके साथ किया हुवा संयोग, देवद्रव्य ये इतने पदार्थ स्वर्गसे भी प्राणीको नीचे गिराते हैं। प्रभास नाम साधारण द्रव्यका है। नरकसे निकल कर तुम दोनों सर्प हुये। वहांसे मृत्यु पाकर फिर दूसरी नरकमें गये वहांसे निकलकर गीद पक्षी बने, फिर तीसरी नरकमें गये । ऐसे एक भव तियंच और एक नारकी करते हुए सातों ही नरकोंमें भमे । फिर एकेन्द्रीय, दो इन्द्रीय, तीन इन्द्रीय, चार इन्द्रीय, तिथंच पंचेन्द्रीय, ऐसे बारह हजार भवमें बहुतसा दुःख भोगकर बहुतसे कर्म खपाकर तुम दोनों जने फिरसे मनुष्य बने हो । तुम दोनों जनोंने बारह रुपयोंका उपयोग किया था इससे बारह हजार भवतक ऐसे विकट दुःख भोगे । इस भवमें भो बारह करोड़ सुवर्ण मुद्रायें पाकर हाथसे खोई । फिर भी ग्यारह दफा धन प्राप्त कर करके पीछे खोया। तथा बहुत दफै दासकर्म किये। कर्मसारने पूर्व भबमें ज्ञानद्रव्य का उपभोग किया होनेसे उसे इस भवमें अतिशय मन्दमतिपन की और निर्बुद्धिपन की प्राप्ति हुई । उपरोक्त मुनिके वचन सुनकर दोनों जने खेद करने लगे। मुनिने धर्मोपदेश दिया जिससे बोध पाकर ज्ञान द्रव्य और साधारण द्रव्यके भक्षण किये हुये बारह २ रुपयोंके बदले बारह २ हजार रुपये जबतक ज्ञान द्रव्य और साधारण व्यमें न दे दें तबतक हम अन्न वस्त्र बिना अन्य सर्वस्व कमाकर उसीमें देंगे ऐसा मुनिके पास नियम ग्रहण करके श्रावक धर्म अंगीकार किया और अब वे नीतिपूर्वक व्यापार करने लगे। दोनों जनोंके किये हुए अशुभ कर्मका क्षय होजानेसे उन्हें ब्यापार वगैरहमें धनकी प्राप्ति हुई, और बारह २ रुपयेके बदलेमें बारह २ हजार सुवर्ण मुद्रायें देकर वे दोनों जने ज्ञानद्रव्य और साधारण द्रव्यके कर्जसे मुक्त हुवे । अन अनुक्रमसे वारह २ करोड सुवर्ण मुद्राओंकी सिद्धि उन्हें फिरसे प्राप्त हुई । अब वे सुश्रावकपन पालते हुए ज्ञान द्रव्य और साधरण द्रव्यका रक्षण एवं वृद्धि करने लगे। तथा वारम्बार ज्ञानके और ज्ञानीके महोत्सव करना वगैरह शुभ करणी करके श्रावकधर्म को यथाशक्ति बहुमान पूर्वक पालने लगे । अन्तमें बहुतसे पुत्र पोत्रादिकी संपदाको छोड़कर दीक्षा अंगीकार कर वे दोनों भाई सिद्धगति को प्राप्त हुये। ऐसे ज्ञान व्य और साधारण व्यके भक्षण पर कर्मसार तथा पुण्यसारका दृष्टान्त सुनकर शानकी आशातना दूर करने में या ज्ञान दब्य एवं साधारण व्यका भक्षण करने की उपेक्षा न करने में सावधान रहना यही विवेकी पुरुषोंको योग्य है। ज्ञानदव्य भी देवदव्य के समान ग्राह्य नहीं है। ऐसे साधारण व्य श्रावक को संघ द्वारा दिया हुवा हो ग्राह्य है। संघके बिना अगवाओं के दिये विना बिलकुल ग्राह्य नहीं। श्री संघ द्वारा साधारण दब्य सात क्षेत्रोंमें ही उपयुक्त होना चाहिए, मांगनेवाले आदिको न देना चाहिए। तथा गुरु प्रमुखका वार फेर किया हुवा द्रव्य यदि साधारणमें गिनै तो वैसा द्रब्य श्रावक श्राविकाको अपने उपयोगमें लेना योग्य नहीं है परन्तु धर्मशाला या उपाश्रय प्रमुखमें लगाना योग्य है । ज्ञान सम्बन्धी कागज, पत्र वगैरह साधुको दिये हों तथापि श्रावकको वह अपने घर कार्यमें उपयुक्त न करना चाहिए। अपनी पुस्तकके लिए भी
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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